Thursday, September 24, 2009

ये दूरदर्शन भी बड़ा टोइंग है….

जर्नलिज्म की पढाई के दौरान पहले ही दिन से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्लास में लेक्चरर “भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और दूरदर्शन के इतिहास” के नोट्स देते नहीं थकते थे. और प्रायः यही जानकारी वे तब से देते आ रहे थे, जब से जर्नलिज्म की पढाई यूनिवर्सिटी में शुरू हुई थी. दूरदर्शन फलाने तारीख को शुरू हुआ....ग्रामीण विकास, शिक्षा और कृषि... वगैरह- वगैरह और न जाने क्या-क्या दूरदर्शन के खोले जाने के उद्देश्य थे. फिर बड़ी पीड़ा से कहते कि दूरदर्शन अपने उद्देश्य से भटक गया है.
पर मेरे लिए दूरदर्शन का यह इतिहास सिवाय बकथोथी के कुछ और नहीं लगता. 50 सालों के दूरदर्शन को मेरी उम्र के तक़रीबन 25 सालों ने नजदीक से देखा है. और मैंने अपने हिसाब से दूरदर्शन और टीवी की जो हिस्ट्री लिखी है, हो सकता है कि आप को बकथोथी लगे, पर पढ़िये जरुर.
हम लोगों की यादें धुंधली पर चुकी हैं. पर इतना याद है, शाम होते ही मोहल्ले के एकलौते घर में जहाँ टीवी था, भीड़ लग जाती. ब्लैक एंड व्हाइट 14 इंच की टीवी के सामने ज़मीन पर बैठ कर लोग “हमलोग” देखते. सालों बाद जब इसका रिपीट टेलीकास्ट देखा, तब पाया कि नन्हे, लल्लू और बसेसर राम की कहानी देखने वालो में कई पात्र तो तब टीवी के सामने और आसपास ही थे. रामायण-महाभारत के दौरान घर में टीवी नहीं था. प्रोग्राम शुरू होने के पहले ही पहुंच जाते चौधरी चाचा के घर. पहले खिड़की पर लटकते और देर तक चिरौरी करने के बाद जा कर कहीं टीवी के सामने जगह मिलती. तब टीवी के सामने बैठना ही मानो हम बच्चों के लिए महाभारत जीत लेने जैसा था.
नज़ारा तब भी वही होता.... एक टीवी और सामने मोहल्ले की भीड़. रामायण-महाभारत ने अरुण गोविल, दीपिका और नीतीश भारद्वाज जैसे कलाकारों को आम जनमानस की नज़रों में भगवान बना दिया. ये वही वक़्त था, जब मोगली के टाईटल सॉंग “जंगल-जंगल फूल खिला है..पता चला है.....” इतना पसंद आया कि अब ये मोबइल के रिंगटोंस में शामिल है.
दिन बीतते गए टीवी हमारे यहाँ भी आया, खास दिन चुनकर कि “जय संतोषी माँ” फिल्म दिखाई जायेगी. दिनभर हम भाई बहन स्कूल नहीं गए. एक-एक चीज देखते, एंटीना कैसे लग रहा है, तार ठीक है कि नहीं... फलाना के यहाँ तो ऐसा नहीं है....वैसा नहीं है...टीवी झिलमिलाता तब भी सामने बैठे रहे.
देर शाम आस पड़ोस को टीवी देखने का न्योता भी दे आया. तब पहली बार घर में अंग्रेजी और हिंदी के समाचार देखने में भी खूब मज़ा आया. समझ में आये या न आये. पडोसी भी संतोषी माँ की फिल्म देखने आने लगे. पर अचानक बत्ती गुल हो गई. लोग इंतजार करते रहे, बिजली नहीं आई, तो उंघते अनमनाते बेमन से घर गए. उस दिन से हर सुबह की शुरुआत टीवी के झिलमिलाने और फिर बन्दे मातरम से होती थी. कभी राष्ट्रीय शोक होता तो अफ़सोस, सप्ताह में दिखाई जाने वाली तीन फिल्मो का होता. गोलमाल, डिस्कोडांसर जैसी फिल्मे जब मंगलवार दोपहर प्रसारित हुई तब याद है, स्कूल में जहां करीब 1000 स्टूडेंट्स थे लंच के बाद 50-100 ही बचे थे. पर धीरे-धीरे टीवी का साइज़ बढा और सामने बैठने वालों की संख्या कम होती गयी.
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते. घरों में बैठे बाबूजी बेटियों से पानी मांगने लगते तो बेचारे बेटे नए लगे बीएसएनएल फोन का बिल जमा नहीं करने की वज़ह से झाड़ खाते.
पर काफी तेजी से टीवी की दुनिया में सब कुछ बदल गया है. एमटीवी और वीटीवी के ज़माने में तेज़ रैंप और ढेंन टे ढेंन.... म्यूजिक के बीच आई-पिल, अनवांटेड-72, मैनफोर्स और ये तो बड़ा टोइंग है.... जैसे विज्ञापन इजिली एक्सेप्टेबल हो गए हैं. “हमलोग” के नन्हे, लल्लू, बसेसर अब भी आस पडोस में नज़र आते हैं. पर आज के टीवी की आदर्श बहू अचानक किसी रियलिटी शो में बिकनी पहन कर अपनी छवि बदलने में लगी है. बैडरूम का सच, “सच का सामना” बन कर सब लोगों तक पहुँच रहा है. सीता के बाद “राखी का स्वयम्वर” टीवी पर पूरी टीआरपी बटोर जाता है. दफ्तर का टेंशन कई बार फैशन टीवी दूर कर देता है... अब तो सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने भी टीवी की रात रंगीन बनाने का मन बना लिया है. कहें तो टीवी का इतना ग्लैमरस हो जाना अच्छा लगता है.... पर पूरे परिवार के सामने नहीं. सिर्फ अपने बैडरूम में....पर इन सब के बीच अब दूरदर्शन, दूर का दर्शन हो चूका है. जिसे शायद कम ही लोग देखना पसंद करते हैं.
ऐसे में दूरदर्शन के पचास सालों को डिफाइन करें तो कहा जा सकता है कि ये सफ़र मोहल्ले भर की भीड़ के सामने 14 इंच की ब्लैक एंड व्हाइट टीवी से लेकर आज के एलसीडी और एचडी टीवी के बैडरूम टीवी बनने की इतनी की कहानी है.
अगर आपको ये कहानी बकथोथी लगी तो बताइयेगा जरुर.

Thursday, June 18, 2009

वामपंथ सफर नक्सलवाडी से सिंगुर और लालगढ़ तक...

१५ वे लोकसभा चुनाव के पहले वामपंथियों को यह एहसास था की वे देश की तीसरी सबसे बड़ी ताकत हैं । लेकिन उनका यह भ्रम लगता है जनता के दिए फैसले के बाद भी नहीं टुटा । चार दशकों से उनके लिए अभेद्य किला रहे बंगाल में जबरदस्त सेंधमारी हो गई , वैचारिक बदलाव ने वामपंथ को जड़ से हिला दिया है । कभी वैचारिक तौर पर उनके साथ रहे माओवादी अब सीपीएम् के लोगो को ही बन्दूक की गोली के सामने रख सत्ता पा लेना चाहते हैं। उदाहरण सामने है - लालगढ़ में नक्सलियों ने ना सिर्फ़ कब्ज़ा कर वर्षो से चली आ रही सीपीएम् सरकार को चुनौती दी बल्कि आज वहां सीपीएम् के नेता -कार्यकर्ता उनके निशाने पर हैं । जाहिर तौर पर इसके लिए बंगाल की सीपीएम् सरकार ही दोषी है , कभी सामंत वाद के विरोध और किसानो के आन्दोलन का समर्थन , और भूमिहीनों को जमीन दिलाकर सीपीएम् ने अपनी ज़मीनमज़बूत की तो बाद में सिंगुर और नंदीग्राम में उन्ही किसानो को जमीन से बेदखल किया जाने की कोशिश सीपीएम् के जमींदोज़होने की वज़ह बन गए। तक़रीबन चार दशकों के राज ने सीपीएम् कार्यकर्ताओं और नेताओ को ही सामंती बना दिया जिस सामंतवाद के बिरोध ने उन्हें नई जान दी थी, उसी राह पर सीपीएम् भी चल पड़ी ।
नक्सल आन्दोलन की शुरुआत नक्सलवाडी से सामंतवादी और जमींदारो की नीतियों से शिकार रहे लोगो ने की , हिंसात्मक आन्दोलन के तौर पर शुरू हुए इस आन्दोलन की मांगो को एक तरह से बंगाल की सीपीएम् सरकार ने ही पुरा किया । सामंती व्यवस्था का अंत हुआ बंगाल में भूमि कानून बना कर भूमिहीनों को जमीन दी गई , वर्षों से जमींदारों की खेतों पर खेती करते आ रहे किसानो को जमीन का मालिकाना हक मिला। किसानो-मजदूरों का साथ मिला ,तब सीपीएम् के किसान समर्थित फैसलों ने बंगाल में उसकी जड़ को इतना मजबूत कर दिया की कोई दूसरी पोलिटिकल शक्ति सीपीएम् के सामने पनप नही पाई। कहीं ना कहीं इस दौरान नक्सलियों का समर्थन भी सीपीएम् के ही साथ रहा ।
पर कहते है की सत्ता भ्रष्ट बनती है तो वामपंथी इससे भला कैसे बचे रहते ? वर्षों से किसानो- मजदूरों हक की बात करने वाली सरकार ने उन्ही किसानो से जमीन छिनने की रणनीति बनाई। पूंजीवाद के विरोध के नारे के उलट किसानो की शर्त पर बुद्धदेव जैसे बुजुर्ग वामपंथी पूंजीवाद के समर्थन में आ खड़े हुए , किसानो से खेती योग्य जमीन छीन कर सिंगुर में टाटा के सपने सजाने की योजना बनने लगी , नंदीग्राम में आम किसान सीपीएम् के निशानेपर रहे सीपीएम् के कार्यकर्ता घरों में घुस कर महिलाओं से बलात्कार करने लगे, किसानो की हत्याएं की जाने लगी , वो सब कुछ हुआ जो अख्खड़ जमींदारो सामंतियों ने भी नही किया होगा। पर बुद्धदेव भट्टाचार्य की वामपंथी सरकार मौन रही । सीपीएम् की ताकत रहे किसान मजदूर उससे दूर हो चुके थे। इसी का परिणाम था की जनता ने इस बार लोकसभा चुनावो में वामपंथियों को ना सिर्फ़ नकार दिया बल्कि यह भी संकेत से डाले की बंगाल का यह किला 20११ के विधानसभा चुनावो में जमींदोज ना हो जाए।

अब जब लालगढ़ में सीपीएम् के लोग ही निशाने पर हैं तो इतना तो कहा ही जा सकता है की नक्सलवाडी से सिंगुर और अब लालगढ़ के वामपंथी सफर में वामपंथ मृतप्राय हो चुका है , और इस दौरान किसानो -मजदूरों के मुद्दों पर राजनीती करने वाला वामपंथ अतिपूंजीवादी नीतियों को अपना चूका है ।

Wednesday, May 20, 2009

देखो...की जनता जाग गई ..लोकतंत्र का नया सबेरा

बिहार में लालू-पासवान की जोड़ी हासिये पर चली गई। चुनावो के पहले ख़ुद के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने वाले लालू प्रसाद का मुस्लिम-यादव समीकरण ध्वस्त हो गया तो दलित प्रधानमंत्री के तौर पर ख़ुद को प्रेजेंट करने वाले रामविलास पासवान अपने पारंपरिक सीट हाजीपुर से हार गए। कभी रिकॉर्ड मतों से वहां से जीतानेवाली जनता ने उन्हें इस बार नकार दिया, इस बार कम से कम बिहार ने यह साफ़ करदिया की वह सिर्फ़ जाति-धर्म के नाम पर अपने नुमाइंदे नही चुनेगी।बिहार में पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी दलित-मुस्लिम और लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल मुस्लिम-यादव समीकरणों की बदौलत जीतते रहे हैं । एक दुसरे के खिलाफ रहने वाले ये दोनों समाजवादी नेता जब एक मंच पर आए तो इनकी एकजुटता से बिहार में अच्छी सीटें आने की कम से कम इन्हे उम्मीद जरुर रही होगी, पर जनता ने यहाँ पिछले तीन-चार सालो में हुए विकास को तबज्जो दी,नीतिश कुमार के विकास कार्यों की बदौलत ही जनता ने यहाँ जद(यू) को वोट दिया और यहाँ एक तरह से एनडीऐ के हांथो दोनों समाजवादी नेता अपनी पुरानी जमीन गवां बैठे।


दूसरी तरफ़ देश भर में धार्मिक लामबंदी की बीजेपी की कोशिश कामयाब नही हो सकी। साल 1991 के बाद ये पहली बार है जब पार्टी को इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा ,वो भी तब जब पार्टी के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवानी ख़ुद पी ऍम बनने की होड़ में थे। बरुण गाँधी के बयानों से पार्टी को नुकसान हुआ ये बीजेपी के लोग भी स्वीकारते हैं , चुनावो में बीजेपी के सुपरस्टार प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी गुजरात में कोई खास कमाल करने में तो नाकाम रहे ही, दुसरे राज्यों में जहाँ कहीं भी उन्होंने प्रचार किया अधिकांश सीटो पर बीजेपी का कमल मुरझा गया। एक समय बीजेपी के गढ़ रहे राजस्थान, उतरांचल ,दिल्ली ,हरियाणा जैसे जगहों पर पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ । उडीसा के कंधमाल में जहाँ हिंदुत्व के नाम पर बजरंग दल और आर एस एस के कार्यकर्ता हिंसा फैलाते रहे , जहाँ बीजेपी ने धार्मिक दीवारें खींचने की तमाम कोशिशें कर रखी थी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा, बीजेपी के प्रत्याशी वहां तीसरे नम्बर पर खिसक गए,तो उडीसा में पार्टी का सुपडा ही साफ़ हो गया ।


चुनाव के ठीक पहले सिक्ख दंगो पर शुरू हुई राजनीति से भी बीजेपी शिरोमणि अकाली दल को उम्मीद थी पर यहाँ भी पंजाब सरकार की फेलियोर की वज़ह से सिक्खों ने कांग्रेस को ही वोट किया तो दिल्ली में भी जहाँ इन मुद्दों पर जगदीश टाईटलर - सज्जन कुमार के टिकट कटे वहां ना सिर्फ़ कांग्रेस जीती,बल्कि बीजेपी की दुर्गति हो गई ।


उतरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को भी उम्मीदों के मुताबिक जनसमर्थन नही मिली , भारतीय ओबामा बनने की मायावती की ख्वाहिश जनता के फैसले के बाद माया बन कर कम से कम पॉँच सालो के लिए टल गई। दलित के बेटी के प्रधानमंत्री बनने के सपनो को दलितों ने ही तोड़ दिया और कलावातिया के दर्द को संसद में उठाने वाले राहुल गाँधी पर उनका जमा विश्वास कमाल कर गया । दम तोड़ चुकी कांग्रेस को राहुल की विकासवादी छवि ने यहाँ नया आयाम दिया साथ ही विपक्षियों के जातिधर्म के नाम पर वोट पाने की उम्मीद और बीजेपी के धार्मिक कट्टरता का फायदा भी कांग्रेस को मिला। मुस्लिमो के भरोसे अपनी जमीन बचाने की सोच रही सपा को कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन चुके कल्याण सिंह को गले लगना भारी पड़ा। यूपी में सीटें लाकर बारगेनिंग पॉलिटिक्स करने की बीएसपी और सपा की मंशा को भी जनता ने नकार दिया।


उसी तरह साल भर से मराठा मानुष की बात कर क्षेत्रीयता के नाम पर महारास्त्र में हिंसा फैलाने वाले राज ठाकरे को मराठी जनता ने नकार दिया यही नही शिवसेना को भी धर्म -क्षेत्र की राजनीती की वज़ह से नुकसान उठाना पड़ा, मुंबई जैसे अपने किले में शिव सेना एक भी सीट नही जीत सकी। अलग तेलंगाना राज्य के डिमांड पर पहले यूपीए फिर चौथे मोर्चे और आख़िर में एनडीऐ के साथ आने वाले टीआरएस को भी मुह की खानी पड़ी। क्षेत्रीयता के नाम पर वोट जुगाड़ने और फिर बारगेनिंग कर सत्ता में आने वाली झारखण्ड मुक्ति मोर्चा अपने गढ़ झारखण्ड में बुरी तरह हार कर दो सीटों तक सिमट गई तो एनडीए से लेकर यूपीए तक के शासन काल में हमेशा मंत्री बने रहने वाले कद्दावर रामबिलास ख़ुद तो हारे ही पार्टी एक भी सीट नही जीत सकी। वामपंथ विचारधारा के नाम पर उदारवादी और विकासपरक नीतियों के विरोध करने वाले वामपंथियों की ये सबसे बुरी हार है, इस बार बंगाल के अभेध्य किले में जबरदस्त सेंधमारी हो गई।


कुल मिला कर कहे तो इस बार के चुनावो में मेचयोरनेस देखा गया, जाति-धर्म के नाम पर बरगलाने वालो की हार हुई तो जनता ने उन सब को सबक सिखाया जिनके लिए राजनीति सेवा कार्य ना होकर सिर्फ़ राज करने की नीति बन कर रह गई थी।

Friday, May 8, 2009

लालूजी मीडिया से काहे का गुस्सा...


लालू जी कल वोट करने वेटेनरी कालेज पहुंचे तो उनके व्यव्हार में भी जानवरीपन सा नज़र आया। बौखलाहट , गुस्सा और कांग्रेस के ठेंगा दिखा दिए जाने की परेशानी के बीच हार जाने के खौफ से तमतमाए लालूजी मीडिया के फोटोग्राफरों / कैमेरामेनो को धक्का देने, भगाने लगे। मीडिया कर्मियों से बात तक नही की, आख़िर क्या बात है की मीडिया फ्रेंडली कहें जाने वाले लालू जी ने वोटिंग के दौरान ऐसा रूख दिखाया। फ़िर कहलवा दिया चुनाव के बाद मीडिया से बात करूँगा।
दरअसल बिहार के पत्रकारों ने १५ सालो तक वहां जंगल राज देखा है, रोजाना पटना के किसी ना किसी इलाके में किसी डॉक्टर, बिजनेसमेन, प्रोफेसर के अपहरण , मर्डर की खबरें आती थी। अपराध में बिहार कुख्यात हो चुका था। उस दौर में बिहार में पत्रकारिता करने वालो ने यहाँ जब नीतिश कुमार के सरकार को कुछ काम करता पाया तो उन्हें सुशासन बाबु का दर्जा दे दिया गया। नीतिश लोगो के साथ-साथ मीडिया की नज़रों में भी हीरो बनकर उभरे। पर बजाए इसके वे कभी कभार मीडिया के निशाने पर आए, ख़ास कर बिहार में आई बाढ़ के दौरान।
पर लालू जी तो बातों के बादशाह ठहरे कुछ भी कह दिया तो ख़बरों में आना ही है , मीडिया उनके पीछे भी लगी रहती है । पर इस बार उनका गुस्सा फ़ुट पड़ा इसकी वज़ह कई है , एक तो वो मीडिया द्वारा बनाई गई नीतिश कुमार की सुशासन बाबु की छवि , तो दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी द्वारा नीतिश कुमार के अच्छा काम करने के बयान पर लालू जी को लगी चिढ। ऊपर से कांग्रेस का लालू जी पर तीखा वार । इन सब के साथ छपरा में राजीव प्रताप की चुनौती, ख़ुद के साथ पार्टी के हार का डर, प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिशों पर पानी फिरता हुआ देखना, साले साधू यादव की बगावत , इन सब के बीच मन का गुस्सा तो था ही पर बार-बार पत्रकार सवाल करे तो इसका गुस्सा पत्रकारों पर उत्तारने से बेहतर क्या हो सकता है।
खैर लालू जी के लिए इतना तो कहा ही जा सकता है कि सत्ता में रहते हुए अगर वे बजाए जातिगत समीकरण बनाने के, विकास का काम करते तो देश के सबसे बड़े समाजवादी नेता तो होते ही बिहार सबसे संपन राज्य होता । और अब जनता जिस तरह ठेंगे दिखा रही है सर आंखों पर बैठती।
लालू जी अब ख़ुद के गिरेबान में झांकिए और मीडिया पर गुस्सा निकालना बंद कीजिये।

Wednesday, February 25, 2009

मैं शर्मिंदा हूँ, कि मैं .......

टीवी चैनलों की भीड़ बढ़ रही है, पल-पल की ख़बर दुनिया के एक कोने से दुसरे कोने में बस मिनटों में मिल जाती है, जिन खबरों को जानने के लिए लोगो को सुबह की अख़बार का इंतजार रहता था, वही ख़बर चंद मिनटों में घर बैठे लोग जान जाते है, विजुअल्स के जरिये लोग वो तमाम चीजे देख पाते है जो घटनास्थल में हुई हो ,फिर भी पत्रकारिता की इस विधा और पत्रकारों पर लोगो का भरोसा कम होता जा रहा है .......टूटते भरोसे की कसक एक पत्रकार होने की वज़ह से महसूस करता हूँ , मात्र दो सालो के करियर में जो बद्लाव मैंने महसूस किया है वही अपने छोटे अनुभव के आधारपर लिख रहा हूँ........

दो साल पहले जर्नलिज्म की पढ़ाई ख़तम करने के बाद से ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़ गया , जब जुडा था तब और अब में वक्त के फासले भले ही कम हो लेकिन मीडिया में बहुत कुछ बदल चुका है, सबसे बड़ा और नकारात्मक बद्लाव आया है आम आदमी की मीडिया पर विश्वसनीयता को लेकर आई कमी में ।यही नही पत्रकारों की छवि में भी गिरावट आई है, पत्रकारों को अब नेताओ का दलाल, सिर्फ़ खाने पिने के लिए चापलूसी करने वाला इन्सान, अपनी तारीफ पाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाने वाले शख्स के तौर पर की जाने लगी है । पर इसके लिए दोषी भी ख़ुद पत्रकार ही है।
कोई प्रेस कांफ्रेंस करे और खाने पिने का अच्छा इंतजाम ना हो, तो पत्रकार नाराज़ हो जाते है, जम के खाना मिले तो चेहरे की खुशी देखिये प्रेस कांफ्रेनस कराने वाले जानते है की बड़े - बड़े टीवी चैनलों के पत्रकारों को कैसे खुश रखना है, और कैसे इन्हे आगे पीछे घुमाना है । ख़ुद को तोप समझने वाला पत्रकार तो आयोजक की इस लागलपेट को अपनी शान समझता है , पर आयोजक की नज़रो में पत्रकार की इज्जत दो टके की रह जाती है। एक वाकया बताता हूँ, एक बड़े शराब व्यवसायी समय समय पर प्रेस कांफ्रेंस बुलाते थे, पत्रकारों को पिलाने की जम कर व्यवस्था की जाती, शराब पीने के लिए स्वयम्भू वरिष्ठ पत्रकार एक दुसरे को धकेलकर आगे निकलने के लिए धमाचौकारी करते और व्यापारी महोदय बड़े - बड़े पत्रकारों की ऐसी हरकत देखकर मंद मंद मुस्काते, और अपना उल्लू सीधा करते। अब जरा सोचिये जहाँ कहीं भी ऐसी कांफ्रेंस बुलाई जाती है वहां कम से कम १० -२० लोग तो होते ही है जो ऐसे आयोजनों से जुड़े होते है , उनके समक्षपत्रकारों और उनके चैनलों की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है, उनकी नजरो में पत्रकार की हैसियत सिर्फ खाने चबाने वाले चापलूस भर की रह जाती है ।
नेताओ के सामने पत्रकारों की हैसियत दलालों की बन गई है जो उनके सामने किसी की ट्रांसफर- पोस्टिंग की डिमांड करता हाथ जोड़े खड़ा रहता है, नेताओ के अगल बगल फटकने वालो दलालों की तरह । अलग विभागों के अधिकारी-कर्मचारी वैसे पत्रकारों को ढूंढ़ते हैं जो मंत्रियों का करीबी हो और किसी तरह उनका काम मंत्री-नेताओ से करा सके । ऐसे पत्रकारों की लिस्ट काफी लम्बी है जो किसी भी शर्त पर नेताओ के खासमखास बनने के लिए लालायित रहते है, ऐसे में जेबी पत्रकार भला दर्शकों-पाठको के समक्ष कैसे अपनी निष्पक्षता साबित कर सकते है, खबरें एकपक्षीय हो जाती हैं ।
जाहिल रिपोर्टरों-कैमरामैन की भी कमी नहीं है किस्से क्या पूछना है क्या नहीं इन्हें नहीं मालूम , समसामयिक जानकारी होती ही नहीं, बस कैमरा उठाया सामने वाले के मुख में माइक लगाया और दाग दिया कोई भी उल्ल्जुलुल सवाल, सामने वाला कुछ बोला तो खबर झुंझलाया तो भी खबर .

पत्रकार होने का शर्म....

बात इस वैलेंटाइन डे की है , पार्कों में खुद को हिंदुत्व और धर्म के ठेकेदार बताने वाले पहुंचे तो खबर बना लेने के लिए लालायित पत्रकार लगे उनका मार्गदर्शन करने, लड़के मिले तो इससे पहले की हिंदुत्व के ठेकेदार कुछ करे, फुटेज बनाने और तस्वीरे उतारने के लिए कैमरामेन ही लगे उठक बैठक कराने . पार्क में ही कुछ लड़कियां बैठी थी, हांथो में फॉर्म था, पत्रकार उनकी तरफ दौड़ पड़े , पीछे से कार्यकर्ता भी दौडे, कार्यकर्ताओ से उनकी बेईजयती करवाई गई, लड़कियां रोने लगी कैमरे के हर एंगल से तस्वीरे बनाई गई, और पत्रकारों के लिए बन गई एक सनसनीखेज़ खबर . लड़कियां रो रही थी तो कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो पास ही बैठकर लड़कियों को टीज़ कर रहे थे, जरा सोचिये उन लड़कियों की नजरो में मीडिया या चैनलों के लोगो की क्या छवि बनी होगी ।

खैर मीडिया में हूँ तो सब देख रहा हूँ पर फिलहाल लोकतंत्र के इस चौथे पाए के लिए इतना तो कहा ही जा सकता है....

बस एक ही उल्लू काफी है बरबादे गुलिस्तां करने को ,

हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा......

Tuesday, January 20, 2009

ये लोकतंत्र है....

हमारी वोट से चुने गए कहलाने वाले प्रतिनिधि क्या वास्तव में जनता की बहुमत का प्रतिनिधित्व करते है...
शायद नही
  • चुनाव के दिन लगभग आधे लोग वोटिंग नही करते ( ये जनता की गलती है), वोट के अपेक्षा पढ़े लिखे लोग घर में बैठ कर फ़िल्म देखना या होलीडे मानना ज्यादा पसंद करते है, हालाँकि बाद में यही बुद्धिजीवी तबका हर मुद्दे पर अपनी बात बेबाकी से करता है( घर के सोफे पे बैठकर) ।
  • जाति-धर्म उम्मीदवारों को चुनने का अहम् पैमाना होता है। इसी भरोसे तरह -तरह के समीकरण बनते है कही कोई लालू माई (मुस्लिम - यादव) समीकरण बनता है तो कहीं शिबू जैसा नेता माँ ( मुस्लिम - आदिवासी) समीकरण बनने की जुगत में लगा रहता है।
  • कुछ लोग पैसे लेकर वोटिंग करते है, बिना करोडो खर्च किए कोई चुनाव लड़ने की सोच भी नही सकता ( अब इतने रुपये कोई जनसेवा के लिए तो खर्च नही ही करेगा, हाँ करोडो लगाओ अरबों कमाओ का धंधा जरूर होता है )
  • एक कहावत है: "जिस ओर युवा चलता है उस ओर ज़माना चलता " पर चुनाव के दिन कई युवा के कदम उधर ही बढ़ते है जिस ओर शराब और पैसे मिलते हैं ।
लोकतंत्र जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा किया जाने वाला शासन है, ऐसा अब्राहम लिंकन ने कहा था, हमारे यहाँ भी प्रायः हर नेता लोकतंत्र की इसी परिभाषा को मानने की बात करता है, पर इतना कर के जो नेता चुना जाता है उसके लिए अमल की परिभाषा दूसरी है -
लोकतंत्र हमारा ( नेता का) , नेता के लिए जनता के नाम पर किया जाने वाला शासन है।

Monday, January 12, 2009

गांधीवादी नही है "मुन्नाभाई"

संजय दत्त राजनीति में किस्मत आजमाने की तैयारी कर रहे हैं, समाजवादी पार्टी उनके गांधीगिरी के अंदाज़ से प्रभावित होकर और समाज में उनके गांधीगिरी के योगदान को भुनाने के लिए नबाबों के शहर लखनऊ से चुनाव में उतारने जा रही है। पर कथित समाजवादी अमर सिंह ये भूल गए की गांधीवाद को आधुनिक गांधीवाद "गांधीगिरी" में तब्दील करने का श्रेय संजय को नही बल्कि फ़िल्म डायरेक्टर राजू हिरानी को जाता है, मुन्नाभाई जो कहते हैं वो स्क्रिप्टरायटर ने बाकायदा लिखा होगा, डायलोग लिखा गया होगा मुन्नाभाई तो बस एक्ट कर रहे थे। तो अमर सिंह जी बजाय राजू हिरानी, फ़िल्म के स्क्रिप्टरायटर या फिर डायलोग लिखने वालो को चुनाव में क्यों नही उत्तारते सिर्फ़ इसलिए ना की वे संजय की तरह फेमस नही हैं, पर गांधीगिरी को जीवंत करने वाले तो वही लोग हैं। वैसे मुन्नाभाई को तो कम से कम गांधीवादी नही कहा जा सकता क्योंकि किसी गांधीवादी को एके-४७ की जरुरत तो नही ही पड़ेगी, किसी डॉन के संगति में रहने का इरादा भी नही रहा होगा पर मुन्नाभाई ऐक्टर अच्छे है और गांधीगिरी की भूमिका को बखूबी जीवंत कर गए । पर इसका मतलब ये नही की वे गाँधी के आदर्शों में जीते हैं , समाज में उन्होंने ऐसा कोई योगदान भी नही दिया जिसे याद रखा जा सके पर भाई राजनीति के लाज़बाब नौटंकीबाज़ अमर सिंह ना जाने उनके किस योगदान को ध्यान में रख कर चुनाव में उत्तार रहे हैं यही नही सजायाफ्ता संजय के चुनाव लड़ने में कानूनी अड़चन आने पर उनकी बीवी मान्यता को नेता बनने की तैयारी में वे लगे हैं खैर संजय अच्छे कलाकार हैं , जनता में प्रसिद्धी भी अच्छी खासी है पर इसका मतलब ये नही की वे अच्छे नेता भी साबित हो । जनता में अभिनेता की प्रसिद्धी का फायदा पहले भी प्रायः सभी दलों ने उठाया है पर कुछ को छोड़ कर शेष नाकाबिल ही साबित हुए। गोविंदा को ही ले मुंबई ने कितनी त्रासदी झेली बम धमाके हुए, ट्रेनों में बिस्फोट हुए, बाढ़ आई लेकिन नेता गोविंदा पर अभिनेता गोविंदा हावी रहा । गोविंदा चर्चा में रहे भी तो कभी अपने फैन्स को थप्पड़ मरने को लेकर तो कभी फ़िल्म डायरेक्टर को पिट कर , यहाँ उनके दिमाग पर सांसद होने का गुरुर हावी रहा होगा । नाम और भी हैं धर्मेन्द्र, हेमा मालनी, दारा सिंह, नीतिश भारद्वाज , दीपिका(रामायण की सीता मैया) जैसे लोगो ने तो हद कर दी उनके एक्टिंग को असलियत समझने वाली जनता ने उन्हें चुना पर वजाय जनता की समस्या सुलझाने के वे जनता से दूर ही रहे।
पर अब जब बात संजय/मान्यता की हो रही है तो इन्हे भी इनकी लोकप्रियता को ध्यान में रख कर ही टिकट दिया जा रहा है, गांधीवाद या गांधीगिरी टिकट दिए जाने का कोई ताल्लुक नही । पर इतना तो साफ़ है संजय जीतते हैं तो दूसरो की तरह किसी जमीनी नेता का हक ही मरेंगे। और हाँ अमर सिंह जी गांधीगिरी के समाज में योगदान को ध्यान में रख कर टिकट देना हो तो फ़िल्म डायरेक्टर राजू हिरानी, स्क्रिप्टरायटर को टिकट दे दीजिये ।

Saturday, January 3, 2009

अपने ही शहर में डरा डरा माही...

तकरीबन पॉँच छः साल पहले की बात है,मेरे एक पड़ोसी की मानसिक स्थिति थोडी ख़राब हो गई थी, गलती से वे जम्मू पहुँच गए, सेना को उनकी गतिविधियाँ संदिग्ध लगी तो उन्हें पकड़ लिया गया । सेना ने पूछताछ शुरू की उनसे पुछा जाता कहाँ से आए हो जबाब में वे ख़ुद को रांची का बताते पर सेना के लोग रांची को करांची समझकर पिटते रहे, कुछ घंटे बाद ही एक बिहारी सैनिक ने अपने साथियों को रांची के बारे में बताया की रांची, झारखण्ड की राजधानी है, तब जा कर उन्हें छोड़ा गया । पर अब रांची को एक नई पहचान मिली है, रांची के नाम को महेंद्र सिंह धोनी ने पुरे विश्व में पहचान दिलाई । पर माही को अपने ही शहर में धमकियाँ मिल रही हैं, जान से मारने की धमकी, माँ-बाप को मारने की धमकी । ऐसे में माही रांची छोड़ सकते हैं , रांची छोड़ने की वज़ह और भी हो सकती है ।
फैन्स से परेशानी -
माही को रांची में सबसे ज्यादा परेशानी अपने फैन्स से है। माही जब भी शहर में होते हैं लोगो की भीड़ उनके घर के आसपास लगी रहती है , जहाँ जाते हैं भीड़ साथ साथ होती है। ऐसे में उनकी प्राइवेट लाइफ एक तरह से खत्म हो गई है वे ना तो अपने दोस्तों से मिलपाते हैं और ना ही आजाद हो कर शहर में घूम ही पाते हैं। ऊपर से खबरनाबिसों की फौज दिन रात उनके आगे पीछे लगी रहती है। घर में हो तो उनकी तस्वीर उतरने के लिए कैमरामैन उनके घर की चारदीवारी पर खड़े रहते हैं, मानो माही के अलावे और कहीं ख़बर ही नही।

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