Thursday, June 18, 2009

वामपंथ सफर नक्सलवाडी से सिंगुर और लालगढ़ तक...

१५ वे लोकसभा चुनाव के पहले वामपंथियों को यह एहसास था की वे देश की तीसरी सबसे बड़ी ताकत हैं । लेकिन उनका यह भ्रम लगता है जनता के दिए फैसले के बाद भी नहीं टुटा । चार दशकों से उनके लिए अभेद्य किला रहे बंगाल में जबरदस्त सेंधमारी हो गई , वैचारिक बदलाव ने वामपंथ को जड़ से हिला दिया है । कभी वैचारिक तौर पर उनके साथ रहे माओवादी अब सीपीएम् के लोगो को ही बन्दूक की गोली के सामने रख सत्ता पा लेना चाहते हैं। उदाहरण सामने है - लालगढ़ में नक्सलियों ने ना सिर्फ़ कब्ज़ा कर वर्षो से चली आ रही सीपीएम् सरकार को चुनौती दी बल्कि आज वहां सीपीएम् के नेता -कार्यकर्ता उनके निशाने पर हैं । जाहिर तौर पर इसके लिए बंगाल की सीपीएम् सरकार ही दोषी है , कभी सामंत वाद के विरोध और किसानो के आन्दोलन का समर्थन , और भूमिहीनों को जमीन दिलाकर सीपीएम् ने अपनी ज़मीनमज़बूत की तो बाद में सिंगुर और नंदीग्राम में उन्ही किसानो को जमीन से बेदखल किया जाने की कोशिश सीपीएम् के जमींदोज़होने की वज़ह बन गए। तक़रीबन चार दशकों के राज ने सीपीएम् कार्यकर्ताओं और नेताओ को ही सामंती बना दिया जिस सामंतवाद के बिरोध ने उन्हें नई जान दी थी, उसी राह पर सीपीएम् भी चल पड़ी ।
नक्सल आन्दोलन की शुरुआत नक्सलवाडी से सामंतवादी और जमींदारो की नीतियों से शिकार रहे लोगो ने की , हिंसात्मक आन्दोलन के तौर पर शुरू हुए इस आन्दोलन की मांगो को एक तरह से बंगाल की सीपीएम् सरकार ने ही पुरा किया । सामंती व्यवस्था का अंत हुआ बंगाल में भूमि कानून बना कर भूमिहीनों को जमीन दी गई , वर्षों से जमींदारों की खेतों पर खेती करते आ रहे किसानो को जमीन का मालिकाना हक मिला। किसानो-मजदूरों का साथ मिला ,तब सीपीएम् के किसान समर्थित फैसलों ने बंगाल में उसकी जड़ को इतना मजबूत कर दिया की कोई दूसरी पोलिटिकल शक्ति सीपीएम् के सामने पनप नही पाई। कहीं ना कहीं इस दौरान नक्सलियों का समर्थन भी सीपीएम् के ही साथ रहा ।
पर कहते है की सत्ता भ्रष्ट बनती है तो वामपंथी इससे भला कैसे बचे रहते ? वर्षों से किसानो- मजदूरों हक की बात करने वाली सरकार ने उन्ही किसानो से जमीन छिनने की रणनीति बनाई। पूंजीवाद के विरोध के नारे के उलट किसानो की शर्त पर बुद्धदेव जैसे बुजुर्ग वामपंथी पूंजीवाद के समर्थन में आ खड़े हुए , किसानो से खेती योग्य जमीन छीन कर सिंगुर में टाटा के सपने सजाने की योजना बनने लगी , नंदीग्राम में आम किसान सीपीएम् के निशानेपर रहे सीपीएम् के कार्यकर्ता घरों में घुस कर महिलाओं से बलात्कार करने लगे, किसानो की हत्याएं की जाने लगी , वो सब कुछ हुआ जो अख्खड़ जमींदारो सामंतियों ने भी नही किया होगा। पर बुद्धदेव भट्टाचार्य की वामपंथी सरकार मौन रही । सीपीएम् की ताकत रहे किसान मजदूर उससे दूर हो चुके थे। इसी का परिणाम था की जनता ने इस बार लोकसभा चुनावो में वामपंथियों को ना सिर्फ़ नकार दिया बल्कि यह भी संकेत से डाले की बंगाल का यह किला 20११ के विधानसभा चुनावो में जमींदोज ना हो जाए।

अब जब लालगढ़ में सीपीएम् के लोग ही निशाने पर हैं तो इतना तो कहा ही जा सकता है की नक्सलवाडी से सिंगुर और अब लालगढ़ के वामपंथी सफर में वामपंथ मृतप्राय हो चुका है , और इस दौरान किसानो -मजदूरों के मुद्दों पर राजनीती करने वाला वामपंथ अतिपूंजीवादी नीतियों को अपना चूका है ।

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छी विश्लेष्णात्मक पोस्ट...आप की राजनीती में पकड़ जोरदार है...लिखते रहिये...
नीरज

hem pandey said...

आजादी की लड़ाई ,चीन का भारत पर आक्रमण, हिंसक नक्सलवादियों और माओवादियों को समर्थन आदि बातों में वामपंथियों का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है.

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