Wednesday, February 25, 2009

मैं शर्मिंदा हूँ, कि मैं .......

टीवी चैनलों की भीड़ बढ़ रही है, पल-पल की ख़बर दुनिया के एक कोने से दुसरे कोने में बस मिनटों में मिल जाती है, जिन खबरों को जानने के लिए लोगो को सुबह की अख़बार का इंतजार रहता था, वही ख़बर चंद मिनटों में घर बैठे लोग जान जाते है, विजुअल्स के जरिये लोग वो तमाम चीजे देख पाते है जो घटनास्थल में हुई हो ,फिर भी पत्रकारिता की इस विधा और पत्रकारों पर लोगो का भरोसा कम होता जा रहा है .......टूटते भरोसे की कसक एक पत्रकार होने की वज़ह से महसूस करता हूँ , मात्र दो सालो के करियर में जो बद्लाव मैंने महसूस किया है वही अपने छोटे अनुभव के आधारपर लिख रहा हूँ........

दो साल पहले जर्नलिज्म की पढ़ाई ख़तम करने के बाद से ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़ गया , जब जुडा था तब और अब में वक्त के फासले भले ही कम हो लेकिन मीडिया में बहुत कुछ बदल चुका है, सबसे बड़ा और नकारात्मक बद्लाव आया है आम आदमी की मीडिया पर विश्वसनीयता को लेकर आई कमी में ।यही नही पत्रकारों की छवि में भी गिरावट आई है, पत्रकारों को अब नेताओ का दलाल, सिर्फ़ खाने पिने के लिए चापलूसी करने वाला इन्सान, अपनी तारीफ पाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाने वाले शख्स के तौर पर की जाने लगी है । पर इसके लिए दोषी भी ख़ुद पत्रकार ही है।
कोई प्रेस कांफ्रेंस करे और खाने पिने का अच्छा इंतजाम ना हो, तो पत्रकार नाराज़ हो जाते है, जम के खाना मिले तो चेहरे की खुशी देखिये प्रेस कांफ्रेनस कराने वाले जानते है की बड़े - बड़े टीवी चैनलों के पत्रकारों को कैसे खुश रखना है, और कैसे इन्हे आगे पीछे घुमाना है । ख़ुद को तोप समझने वाला पत्रकार तो आयोजक की इस लागलपेट को अपनी शान समझता है , पर आयोजक की नज़रो में पत्रकार की इज्जत दो टके की रह जाती है। एक वाकया बताता हूँ, एक बड़े शराब व्यवसायी समय समय पर प्रेस कांफ्रेंस बुलाते थे, पत्रकारों को पिलाने की जम कर व्यवस्था की जाती, शराब पीने के लिए स्वयम्भू वरिष्ठ पत्रकार एक दुसरे को धकेलकर आगे निकलने के लिए धमाचौकारी करते और व्यापारी महोदय बड़े - बड़े पत्रकारों की ऐसी हरकत देखकर मंद मंद मुस्काते, और अपना उल्लू सीधा करते। अब जरा सोचिये जहाँ कहीं भी ऐसी कांफ्रेंस बुलाई जाती है वहां कम से कम १० -२० लोग तो होते ही है जो ऐसे आयोजनों से जुड़े होते है , उनके समक्षपत्रकारों और उनके चैनलों की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है, उनकी नजरो में पत्रकार की हैसियत सिर्फ खाने चबाने वाले चापलूस भर की रह जाती है ।
नेताओ के सामने पत्रकारों की हैसियत दलालों की बन गई है जो उनके सामने किसी की ट्रांसफर- पोस्टिंग की डिमांड करता हाथ जोड़े खड़ा रहता है, नेताओ के अगल बगल फटकने वालो दलालों की तरह । अलग विभागों के अधिकारी-कर्मचारी वैसे पत्रकारों को ढूंढ़ते हैं जो मंत्रियों का करीबी हो और किसी तरह उनका काम मंत्री-नेताओ से करा सके । ऐसे पत्रकारों की लिस्ट काफी लम्बी है जो किसी भी शर्त पर नेताओ के खासमखास बनने के लिए लालायित रहते है, ऐसे में जेबी पत्रकार भला दर्शकों-पाठको के समक्ष कैसे अपनी निष्पक्षता साबित कर सकते है, खबरें एकपक्षीय हो जाती हैं ।
जाहिल रिपोर्टरों-कैमरामैन की भी कमी नहीं है किस्से क्या पूछना है क्या नहीं इन्हें नहीं मालूम , समसामयिक जानकारी होती ही नहीं, बस कैमरा उठाया सामने वाले के मुख में माइक लगाया और दाग दिया कोई भी उल्ल्जुलुल सवाल, सामने वाला कुछ बोला तो खबर झुंझलाया तो भी खबर .

पत्रकार होने का शर्म....

बात इस वैलेंटाइन डे की है , पार्कों में खुद को हिंदुत्व और धर्म के ठेकेदार बताने वाले पहुंचे तो खबर बना लेने के लिए लालायित पत्रकार लगे उनका मार्गदर्शन करने, लड़के मिले तो इससे पहले की हिंदुत्व के ठेकेदार कुछ करे, फुटेज बनाने और तस्वीरे उतारने के लिए कैमरामेन ही लगे उठक बैठक कराने . पार्क में ही कुछ लड़कियां बैठी थी, हांथो में फॉर्म था, पत्रकार उनकी तरफ दौड़ पड़े , पीछे से कार्यकर्ता भी दौडे, कार्यकर्ताओ से उनकी बेईजयती करवाई गई, लड़कियां रोने लगी कैमरे के हर एंगल से तस्वीरे बनाई गई, और पत्रकारों के लिए बन गई एक सनसनीखेज़ खबर . लड़कियां रो रही थी तो कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो पास ही बैठकर लड़कियों को टीज़ कर रहे थे, जरा सोचिये उन लड़कियों की नजरो में मीडिया या चैनलों के लोगो की क्या छवि बनी होगी ।

खैर मीडिया में हूँ तो सब देख रहा हूँ पर फिलहाल लोकतंत्र के इस चौथे पाए के लिए इतना तो कहा ही जा सकता है....

बस एक ही उल्लू काफी है बरबादे गुलिस्तां करने को ,

हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा......

18 comments:

Unknown said...

पत्रकारिता की गिरते साख पत्रकारों की दोगली छवि से मैं भी शर्मिंदा हु अखिलेश.हमें समझना होगा की समाज मैं हमारी क्या अहमियत है और इसके प्रति हमारा क्या दायित्व बनता है.....

आशीष कुमार 'अंशु' said...

सच लिखने के लिए शुक्रिया साथी. यह हिम्मत आगे भी बना रहे.

डॉ .अनुराग said...

सारी कवायद इस जज्बे को बचा कर रखने की है.......

EDHAR HAI said...

bat 100% sahi kahi hai. hame kud ko badlne ki jarurat hai Akhilesh bhai...

संगीता पुरी said...

मीडिया के व्‍यवसायीकरण के इस युग में संपादकों पत्रकारों को नौकरी भी तो बचाए रखनी है ... यदि सब मिलकर सोंचे तभी कुछ अच्‍छा हो सकता है।

आकाश सिंह said...

बस एक ही उल्लू काफी है बरबादे गुलिस्तां करने को ,
हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा......
सही कहा है आपने हमें खुद को बदलने की जरुरत है. हम बदलेंगे तो शायद हमें देख कुछ लोग है सही बदलेंगे जरूर

Anonymous said...

इतने स्पष्ट रूप से कडुवी बात लिखने के लिए धन्यवाद. इन्हीं बातों से प्रेरित हो कर मुझे अपने ब्लॉग पर 'पत्रकारों की नस्ल' पोस्ट लिखनी पडी थी.

दिगम्बर नासवा said...

अपना सच खुद बयान करने के लिए हिम्मत चाहिए............और आपमें यह हिम्मत है.
गिरते स्तर पर चिंता तो स्वाभाविक होनी चाहिए........पता नहीं कब जागेंगे इसा करने वाले.
स्पष्ट लिखने के लिए शुक्रिया

शोभा said...

बहुत सही और सटीक बात लिखी है।

राजीव करूणानिधि said...

सांई इतना दीजिये जामे कुटुम समाय, मै भी भूखा ना रहूँ साधू ना भूखा जाय. पर अब ठीक इसके उलट, लोगों ने अपनी महत्त्वाकांक्षा और जरूरतों की लिस्ट इतनी लम्बी कर ली है कि इसे पाने के लिये दलाल भी बनना गवारा समझते हैं.
वैसे, जर्नलिस्ट होने के नाते मुझे भी शर्म आती है, पर उससे ज्यादा पीडा होती है. आखिर किस राह पर हैं देश के कर्णधार, क्या मुह दिखायेंगे ए निष्पक्षता और स्वाभिमान को. बिकाऊ और ज़मीर गिरवी रख चुके ऐसे पत्रकारों को समाज में भी रहने का हक नहीं होना चाहिए. मुझे फक्र है अखिलेश आप जैसे पत्रकारों पर जो बाजारवाद के मीडिया पर बढ़ते प्रभाव के बावजूद बेखौफ और बेबाक लिखने की जहमत उठाकर मिसाल पेश की है. अगर आप जैसी सोच देश का हर युवा अपना ले तो ऐसे सभी भ्रष्ट बेगैरतों से हम बहुत जल्द निजात पा लेंगे. मीडिया में आपका अनुभव भले ही छोटा है पर आपका हौसला बड़े-बड़े दिग्गजों पर भारी है. सच्चाई और इमानदारी की तीमारदारी करते रहिये मेरे भाई तभी भारत की भोली जनता बेतकल्लुफ़ सो सकेगी.
पत्रकार के गैरत में आई गिरावट की एक और बड़ी वजह है मीडिया हाउस चलने वाले वरिष्ट घाघ जो पत्रकारों की नौकरी तो चबाते ही हैं, उन्हें उचित तनख्वाह देना भी पैसे की बर्बादी समझते हैं. पर अपनी बेटी को लिवाइस की जींस ज़रूर पहनाते हैं और ऑडी कार से अपनी शान बघारते इतराते हैं. पत्रकारों को जिंदा रहने के लिये रोटी भी चाहिए और कोई पागल समझ कर पत्थर ना मारे इसलिए कम से कम कुर्ता पायजामा भी चाहिए. ऐसे ही ज़रूरी शैतान को शांत करने के लिये बेचारे पत्रकार घाघों से थक-हार कर समझौता करना सीख लेते हैं.

Dr.Bhawna Kunwar said...

आपने पत्रकारिता से जुड़े होने के बावज़ूद जो जिस सच्चाई को बेबाकी से लिखा है... उसके लिए आपको बधाई ...वास्तव में जागरूकता की आवश्यकता है...

Anonymous said...

aapne bahut accha likha hai.

समीर सृज़न said...

सटीक और बेबाक लिखने के लिए सबसे पहले आपको बधाई..
एक मीडियाकर्मी होने के नाते मेरे दिल मे भी कसक रहती है की जिनके हाथो मे समाज को नई तस्वीर देने का औजार है वही हाथ आज जमीनी हकीकत से दूर अपनी रोटियाँ सेंकने मे मशगूल है..लेकिन मेरे दोस्त वक्त और हालत एक जैसे नहीं रहते..आज अगर शैशवा अवस्था में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ये स्थिति है तो मुझे पूरा यकीं है की जवानी आते आते आपको भी इस तस्वीर क दूसरा रूप देखने को मिलेगा..ये बातें मैं यूँ ही हवा में नहीं कर रहा हूँ..अगर आप और हम जैसे अगली पंक्ति के जर्नलिस्ट इसे बदलने को तैयार है तो हवाओ के रुख भी बदल सकते है....

Dr.Bhawna Kunwar said...

होली की ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ..

हरकीरत ' हीर' said...

बस एक ही उल्लू काफी है बरबादे गुलिस्तां करने को ,
हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा......waah waah ...!! sach kha aapne....patrakaron ke is dogalepan se mera pala pda hai isliye kah sakti hun ke aapne bilkul sach likha hai...!!

कुमार संभव said...

पत्रकारों की पोल खोलती ये लेख कई तथाकथित पत्रकारों को आइना दिखा रही है. शर्म तो उन्हें आएगी नहीं. उनके बारे में क्या लिखूं.

राजीव करूणानिधि said...

कुछ नया लिखिए भाई. इंतजार है

ilesh said...

akhilesh ji aap to eid ka chand ho gaye gayab he janab....nice article

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