Tuesday, January 20, 2009

ये लोकतंत्र है....

हमारी वोट से चुने गए कहलाने वाले प्रतिनिधि क्या वास्तव में जनता की बहुमत का प्रतिनिधित्व करते है...
शायद नही
  • चुनाव के दिन लगभग आधे लोग वोटिंग नही करते ( ये जनता की गलती है), वोट के अपेक्षा पढ़े लिखे लोग घर में बैठ कर फ़िल्म देखना या होलीडे मानना ज्यादा पसंद करते है, हालाँकि बाद में यही बुद्धिजीवी तबका हर मुद्दे पर अपनी बात बेबाकी से करता है( घर के सोफे पे बैठकर) ।
  • जाति-धर्म उम्मीदवारों को चुनने का अहम् पैमाना होता है। इसी भरोसे तरह -तरह के समीकरण बनते है कही कोई लालू माई (मुस्लिम - यादव) समीकरण बनता है तो कहीं शिबू जैसा नेता माँ ( मुस्लिम - आदिवासी) समीकरण बनने की जुगत में लगा रहता है।
  • कुछ लोग पैसे लेकर वोटिंग करते है, बिना करोडो खर्च किए कोई चुनाव लड़ने की सोच भी नही सकता ( अब इतने रुपये कोई जनसेवा के लिए तो खर्च नही ही करेगा, हाँ करोडो लगाओ अरबों कमाओ का धंधा जरूर होता है )
  • एक कहावत है: "जिस ओर युवा चलता है उस ओर ज़माना चलता " पर चुनाव के दिन कई युवा के कदम उधर ही बढ़ते है जिस ओर शराब और पैसे मिलते हैं ।
लोकतंत्र जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा किया जाने वाला शासन है, ऐसा अब्राहम लिंकन ने कहा था, हमारे यहाँ भी प्रायः हर नेता लोकतंत्र की इसी परिभाषा को मानने की बात करता है, पर इतना कर के जो नेता चुना जाता है उसके लिए अमल की परिभाषा दूसरी है -
लोकतंत्र हमारा ( नेता का) , नेता के लिए जनता के नाम पर किया जाने वाला शासन है।

Monday, January 12, 2009

गांधीवादी नही है "मुन्नाभाई"

संजय दत्त राजनीति में किस्मत आजमाने की तैयारी कर रहे हैं, समाजवादी पार्टी उनके गांधीगिरी के अंदाज़ से प्रभावित होकर और समाज में उनके गांधीगिरी के योगदान को भुनाने के लिए नबाबों के शहर लखनऊ से चुनाव में उतारने जा रही है। पर कथित समाजवादी अमर सिंह ये भूल गए की गांधीवाद को आधुनिक गांधीवाद "गांधीगिरी" में तब्दील करने का श्रेय संजय को नही बल्कि फ़िल्म डायरेक्टर राजू हिरानी को जाता है, मुन्नाभाई जो कहते हैं वो स्क्रिप्टरायटर ने बाकायदा लिखा होगा, डायलोग लिखा गया होगा मुन्नाभाई तो बस एक्ट कर रहे थे। तो अमर सिंह जी बजाय राजू हिरानी, फ़िल्म के स्क्रिप्टरायटर या फिर डायलोग लिखने वालो को चुनाव में क्यों नही उत्तारते सिर्फ़ इसलिए ना की वे संजय की तरह फेमस नही हैं, पर गांधीगिरी को जीवंत करने वाले तो वही लोग हैं। वैसे मुन्नाभाई को तो कम से कम गांधीवादी नही कहा जा सकता क्योंकि किसी गांधीवादी को एके-४७ की जरुरत तो नही ही पड़ेगी, किसी डॉन के संगति में रहने का इरादा भी नही रहा होगा पर मुन्नाभाई ऐक्टर अच्छे है और गांधीगिरी की भूमिका को बखूबी जीवंत कर गए । पर इसका मतलब ये नही की वे गाँधी के आदर्शों में जीते हैं , समाज में उन्होंने ऐसा कोई योगदान भी नही दिया जिसे याद रखा जा सके पर भाई राजनीति के लाज़बाब नौटंकीबाज़ अमर सिंह ना जाने उनके किस योगदान को ध्यान में रख कर चुनाव में उत्तार रहे हैं यही नही सजायाफ्ता संजय के चुनाव लड़ने में कानूनी अड़चन आने पर उनकी बीवी मान्यता को नेता बनने की तैयारी में वे लगे हैं खैर संजय अच्छे कलाकार हैं , जनता में प्रसिद्धी भी अच्छी खासी है पर इसका मतलब ये नही की वे अच्छे नेता भी साबित हो । जनता में अभिनेता की प्रसिद्धी का फायदा पहले भी प्रायः सभी दलों ने उठाया है पर कुछ को छोड़ कर शेष नाकाबिल ही साबित हुए। गोविंदा को ही ले मुंबई ने कितनी त्रासदी झेली बम धमाके हुए, ट्रेनों में बिस्फोट हुए, बाढ़ आई लेकिन नेता गोविंदा पर अभिनेता गोविंदा हावी रहा । गोविंदा चर्चा में रहे भी तो कभी अपने फैन्स को थप्पड़ मरने को लेकर तो कभी फ़िल्म डायरेक्टर को पिट कर , यहाँ उनके दिमाग पर सांसद होने का गुरुर हावी रहा होगा । नाम और भी हैं धर्मेन्द्र, हेमा मालनी, दारा सिंह, नीतिश भारद्वाज , दीपिका(रामायण की सीता मैया) जैसे लोगो ने तो हद कर दी उनके एक्टिंग को असलियत समझने वाली जनता ने उन्हें चुना पर वजाय जनता की समस्या सुलझाने के वे जनता से दूर ही रहे।
पर अब जब बात संजय/मान्यता की हो रही है तो इन्हे भी इनकी लोकप्रियता को ध्यान में रख कर ही टिकट दिया जा रहा है, गांधीवाद या गांधीगिरी टिकट दिए जाने का कोई ताल्लुक नही । पर इतना तो साफ़ है संजय जीतते हैं तो दूसरो की तरह किसी जमीनी नेता का हक ही मरेंगे। और हाँ अमर सिंह जी गांधीगिरी के समाज में योगदान को ध्यान में रख कर टिकट देना हो तो फ़िल्म डायरेक्टर राजू हिरानी, स्क्रिप्टरायटर को टिकट दे दीजिये ।

Saturday, January 3, 2009

अपने ही शहर में डरा डरा माही...

तकरीबन पॉँच छः साल पहले की बात है,मेरे एक पड़ोसी की मानसिक स्थिति थोडी ख़राब हो गई थी, गलती से वे जम्मू पहुँच गए, सेना को उनकी गतिविधियाँ संदिग्ध लगी तो उन्हें पकड़ लिया गया । सेना ने पूछताछ शुरू की उनसे पुछा जाता कहाँ से आए हो जबाब में वे ख़ुद को रांची का बताते पर सेना के लोग रांची को करांची समझकर पिटते रहे, कुछ घंटे बाद ही एक बिहारी सैनिक ने अपने साथियों को रांची के बारे में बताया की रांची, झारखण्ड की राजधानी है, तब जा कर उन्हें छोड़ा गया । पर अब रांची को एक नई पहचान मिली है, रांची के नाम को महेंद्र सिंह धोनी ने पुरे विश्व में पहचान दिलाई । पर माही को अपने ही शहर में धमकियाँ मिल रही हैं, जान से मारने की धमकी, माँ-बाप को मारने की धमकी । ऐसे में माही रांची छोड़ सकते हैं , रांची छोड़ने की वज़ह और भी हो सकती है ।
फैन्स से परेशानी -
माही को रांची में सबसे ज्यादा परेशानी अपने फैन्स से है। माही जब भी शहर में होते हैं लोगो की भीड़ उनके घर के आसपास लगी रहती है , जहाँ जाते हैं भीड़ साथ साथ होती है। ऐसे में उनकी प्राइवेट लाइफ एक तरह से खत्म हो गई है वे ना तो अपने दोस्तों से मिलपाते हैं और ना ही आजाद हो कर शहर में घूम ही पाते हैं। ऊपर से खबरनाबिसों की फौज दिन रात उनके आगे पीछे लगी रहती है। घर में हो तो उनकी तस्वीर उतरने के लिए कैमरामैन उनके घर की चारदीवारी पर खड़े रहते हैं, मानो माही के अलावे और कहीं ख़बर ही नही।

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