Thursday, September 24, 2009

ये दूरदर्शन भी बड़ा टोइंग है….

जर्नलिज्म की पढाई के दौरान पहले ही दिन से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्लास में लेक्चरर “भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और दूरदर्शन के इतिहास” के नोट्स देते नहीं थकते थे. और प्रायः यही जानकारी वे तब से देते आ रहे थे, जब से जर्नलिज्म की पढाई यूनिवर्सिटी में शुरू हुई थी. दूरदर्शन फलाने तारीख को शुरू हुआ....ग्रामीण विकास, शिक्षा और कृषि... वगैरह- वगैरह और न जाने क्या-क्या दूरदर्शन के खोले जाने के उद्देश्य थे. फिर बड़ी पीड़ा से कहते कि दूरदर्शन अपने उद्देश्य से भटक गया है.
पर मेरे लिए दूरदर्शन का यह इतिहास सिवाय बकथोथी के कुछ और नहीं लगता. 50 सालों के दूरदर्शन को मेरी उम्र के तक़रीबन 25 सालों ने नजदीक से देखा है. और मैंने अपने हिसाब से दूरदर्शन और टीवी की जो हिस्ट्री लिखी है, हो सकता है कि आप को बकथोथी लगे, पर पढ़िये जरुर.
हम लोगों की यादें धुंधली पर चुकी हैं. पर इतना याद है, शाम होते ही मोहल्ले के एकलौते घर में जहाँ टीवी था, भीड़ लग जाती. ब्लैक एंड व्हाइट 14 इंच की टीवी के सामने ज़मीन पर बैठ कर लोग “हमलोग” देखते. सालों बाद जब इसका रिपीट टेलीकास्ट देखा, तब पाया कि नन्हे, लल्लू और बसेसर राम की कहानी देखने वालो में कई पात्र तो तब टीवी के सामने और आसपास ही थे. रामायण-महाभारत के दौरान घर में टीवी नहीं था. प्रोग्राम शुरू होने के पहले ही पहुंच जाते चौधरी चाचा के घर. पहले खिड़की पर लटकते और देर तक चिरौरी करने के बाद जा कर कहीं टीवी के सामने जगह मिलती. तब टीवी के सामने बैठना ही मानो हम बच्चों के लिए महाभारत जीत लेने जैसा था.
नज़ारा तब भी वही होता.... एक टीवी और सामने मोहल्ले की भीड़. रामायण-महाभारत ने अरुण गोविल, दीपिका और नीतीश भारद्वाज जैसे कलाकारों को आम जनमानस की नज़रों में भगवान बना दिया. ये वही वक़्त था, जब मोगली के टाईटल सॉंग “जंगल-जंगल फूल खिला है..पता चला है.....” इतना पसंद आया कि अब ये मोबइल के रिंगटोंस में शामिल है.
दिन बीतते गए टीवी हमारे यहाँ भी आया, खास दिन चुनकर कि “जय संतोषी माँ” फिल्म दिखाई जायेगी. दिनभर हम भाई बहन स्कूल नहीं गए. एक-एक चीज देखते, एंटीना कैसे लग रहा है, तार ठीक है कि नहीं... फलाना के यहाँ तो ऐसा नहीं है....वैसा नहीं है...टीवी झिलमिलाता तब भी सामने बैठे रहे.
देर शाम आस पड़ोस को टीवी देखने का न्योता भी दे आया. तब पहली बार घर में अंग्रेजी और हिंदी के समाचार देखने में भी खूब मज़ा आया. समझ में आये या न आये. पडोसी भी संतोषी माँ की फिल्म देखने आने लगे. पर अचानक बत्ती गुल हो गई. लोग इंतजार करते रहे, बिजली नहीं आई, तो उंघते अनमनाते बेमन से घर गए. उस दिन से हर सुबह की शुरुआत टीवी के झिलमिलाने और फिर बन्दे मातरम से होती थी. कभी राष्ट्रीय शोक होता तो अफ़सोस, सप्ताह में दिखाई जाने वाली तीन फिल्मो का होता. गोलमाल, डिस्कोडांसर जैसी फिल्मे जब मंगलवार दोपहर प्रसारित हुई तब याद है, स्कूल में जहां करीब 1000 स्टूडेंट्स थे लंच के बाद 50-100 ही बचे थे. पर धीरे-धीरे टीवी का साइज़ बढा और सामने बैठने वालों की संख्या कम होती गयी.
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते. घरों में बैठे बाबूजी बेटियों से पानी मांगने लगते तो बेचारे बेटे नए लगे बीएसएनएल फोन का बिल जमा नहीं करने की वज़ह से झाड़ खाते.
पर काफी तेजी से टीवी की दुनिया में सब कुछ बदल गया है. एमटीवी और वीटीवी के ज़माने में तेज़ रैंप और ढेंन टे ढेंन.... म्यूजिक के बीच आई-पिल, अनवांटेड-72, मैनफोर्स और ये तो बड़ा टोइंग है.... जैसे विज्ञापन इजिली एक्सेप्टेबल हो गए हैं. “हमलोग” के नन्हे, लल्लू, बसेसर अब भी आस पडोस में नज़र आते हैं. पर आज के टीवी की आदर्श बहू अचानक किसी रियलिटी शो में बिकनी पहन कर अपनी छवि बदलने में लगी है. बैडरूम का सच, “सच का सामना” बन कर सब लोगों तक पहुँच रहा है. सीता के बाद “राखी का स्वयम्वर” टीवी पर पूरी टीआरपी बटोर जाता है. दफ्तर का टेंशन कई बार फैशन टीवी दूर कर देता है... अब तो सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने भी टीवी की रात रंगीन बनाने का मन बना लिया है. कहें तो टीवी का इतना ग्लैमरस हो जाना अच्छा लगता है.... पर पूरे परिवार के सामने नहीं. सिर्फ अपने बैडरूम में....पर इन सब के बीच अब दूरदर्शन, दूर का दर्शन हो चूका है. जिसे शायद कम ही लोग देखना पसंद करते हैं.
ऐसे में दूरदर्शन के पचास सालों को डिफाइन करें तो कहा जा सकता है कि ये सफ़र मोहल्ले भर की भीड़ के सामने 14 इंच की ब्लैक एंड व्हाइट टीवी से लेकर आज के एलसीडी और एचडी टीवी के बैडरूम टीवी बनने की इतनी की कहानी है.
अगर आपको ये कहानी बकथोथी लगी तो बताइयेगा जरुर.
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