Wednesday, May 5, 2010

.... तो ये प्रियभांशुओं के पीछे बंदूक लेकर दौड़े

आरा के एक गाँव की बात है । तक़रीबन १०-१२ साल पहले की। राजपूत परिवार की एक बेटी जो आरा में रह कर पढाई करती थी उसने अपने एक साथी के साथ भाग कर शादी कर ली... घर वाले को गाँव के लोग ताना मारते- आउर भेज पढाई करे खातिर, दोष लईकी से जयादा घर वाला के बा....अइसन लईकी के काट के सोन ( सोन नदी) में फेंक देवे के चाही...बगैरह बगैरह .....


खैर, ये बात तो आरा के एक ऐसे गाँव की थी जहां लोग कम पढ़े लिखे थे, प्यार जैसी बातों का इनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ने वाला था, उसकी वज़ह थी वे जिन संस्कारों में पले-बढे थे वहां पारिवारिक प्रतिष्ठा, प्यार जैसी आत्मीय चीज से ज्यादा तबज्जो रखती है। और ऐसे ही गावों में चाहे वो झारखण्ड -बिहार , यूपी के हो या हरियाणा, पंजाब के ऑनर किलिंग आम बात है। पर अब मामला एक ऐसे परिवार का है जो सभ्य कहा जाता है। ये परिवार अपनी एकलौती बेटी को जर्नलिज्म की पढाई करने के लिए दिल्ली भेजता है, लड़की दुसरे कास्ट के लड़के से प्यार कर बैठती है। पढाई के बाद दिल्ली के एक प्रख्यात अखबार में काम भी करती है। पर जब यही लड़की अपने साथी से शादी करना चाहती है तो परिवार वाले नाराज हो जाते है, संदिग्ध परिस्थियों में उसकी लाश घर से बरामद की जाती है, तफ्तीश में पहले आत्महत्या और फिर हत्या का मामला सामने आता है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलता है की लड़की10-12 हफ्ते से प्रेग्नेंट भी थी... पर प्रेमी कहता है उसे अपनी प्रेमिका के प्रेग्नेंट होने का पता ही नहीं।


ऐसी ही अनसुलझी गुत्थी बन गयी है निरुपमा। पत्रकार निरुपमा... आरोप है घर वालों ने कोरी प्रतिष्ठा के लिए मार दिया... तो प्रेमी ने भी प्रेम की सौगात दी बिन व्याही मा बना कर। अब लड़ाई लड़ी जा रही है, निरुपमा को इन्साफ देने की। तमाम टीवी चैनलों से लेकर कई वेबसाइट्स पर बुद्धिजीवियों के बीच बहस चल रही है। कोई घरवालों को जल्लाद कह रहा है तो कोई निरुपमा को इन्साफ दिलाने की बात कर रहा है ,प्रेमी महोदय भी चौड़ी छाती कर टीवी चैनलों में बाईट देते फिर रहे है, निरुपमा के लिए इन्साफ मांग रहे है, पर सवाल उठता है क्या उन्होंने खुद निरुपमा से, जिससे वो प्यार करते थे इन्साफ किया। क्या प्यार करने का ये मतलब है की जिससे प्यार करो उससे बिन व्याही मा बना दो...

बुद्धिजीवियों का एक तबका बड़े कि जोर शोर के साथ प्रेमी प्रियाभान्शु महोदय के साथ खड़ा है, और सिर्फ घर वालों को गरियाकर अपनी भड़ास निकाल रहा है। पर ये बुद्धिजीवी ये क्यूँ भूल जाते हैं जब ऐसा ही कोई प्रियाभान्शु इनकी भी बहन, बेटियों को बिना व्याहे प्रेग्नेंट कर दे तो क्या वे उसे भी ऐसे ही सिरमौर बनायेंगे, हाँ, तब जरुर ये बन्दुक लेकर ऐसे प्रियाभान्शुओं को मारने के लिए दौड़े ।

प्रेमी महोदय निरुपमा से कितना प्यार करते थे इसका अंदाज़ा भी इस बात से लगाया जा सकता है, जब इनकी मृत प्रेमिका के मामले में पूछताछ के लिए पुलिस ने कोडरमा बुलाया तो जनाब सीधे मुकर गए। हाँ, रोज रोज टीवी पर आकर ये खुद को बड़ा प्रेमी जरुर साबित करना चाहते हैं। पर जब निरुपमा को इन्साफ ये दिलाना ही चाहते है तो ये पुलिस को सहयोग क्यूँ नहीं करते ....
मतलब साफ़ है निरुपमा की मौत का गुनाहगार जितना उसके घर वाले है , उतना ही जनाब -प्रियभान्शु भी, जिसने निरुपमा के सामने ऐसी परिस्तिथियाँ खड़ी कि जिसकी वज़ह से उसकी मौत हुई ...बुद्धिजीवियों से अनुरोध है, उस परिवार का भी दर्द समझे जिससे निरुपमा ताल्लुकात रखती थी। ज़नाब आप लोगों कि भी बेटियां है, बहने हैं .....समझने की कोशिश करें संस्कार और संस्कृतियों को ठेंगा दिखा कर आप प्रगतिशील नहीं कहलायेंगे ।


Wednesday, April 21, 2010

मीडिया के आहूजा और नित्यानंद-भीमानंद

शाइनी आहूजा, स्वामी नित्यानंद और भीमानंद कुछ ऐसे नाम है जिनकी सच्चाई सामने नहीं आती तो आज भी ये काले कारनामे करने के बावजूद शान की जिन्दगी जी रहे होते. शाइनी के फैन्स रंगीन दुनिया के इस हीरो को वैसा ही भोला भाला मानती जैसे की वो अपनी फिल्मो में एक्टिंग करता, फिल्मो के अनुसार उसकी छवि कभी गंभीर बनती तो कभी चॉकलेटी जैसे की उसकी सूरत थी. पर वास्तविक जीवन में शाइनी की सीरत सबके सामने है. बाबा जिसके भक्तों में बड़े से बड़ा नेता, मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की गिनती होती हो वो सेक्स स्कैंडल में पकड़ा जाए, धर्म के क्षेत्र में जिसकी तुलना शंकराचार्य से की जाने लगी हो उसकी आपतिजनक वीडियो टीवी पर प्रसारित हो जाती है., और उनके काले कारनामे की पोल खुल जाती है. टीवी पर बहस छिड़ जाती है, नैतिकता की दुहाई दी जाती है. पर क्या नैतिकता की बात करने वालों के बीच भी ऐसे लोग है जो अपने कारनामो से इन आहूजाओं, नित्यानंद और भीमानंद से किसी मायने में कम नहीं. सवाल अब मीडिया के बीच से ही उठने लगे है की क्या बॉलीवुड के दायरे से बाहर निकल कर कास्टिंग काउच, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में भी घर कर गया है.
जाने माने पत्रकार अजित अंजुम ने अपनी फेसबुक पर ये लिखा की कैसे उनसे कुछ लड़कियों ने अपनी व्यथा सुनाई की मास कॉम की पढाई करने के बाद जब नौकरी की तलाश में वे मीडिया के वरिष्ठों से मिली तो उनका व्यवहार कैसा रहा. कई लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आयीं जिन्होंने मीडिया में हो रहे कास्टिंग काउच पर खुल कर अपनी बात रखी. कईयों ने इशारों इशारों में उन लोगों की तरफ इशारा भी किया जो मीडिया में नारी शरीर के कुछ ज्यादा ही शौक़ीन हैं.
दरअसल मीडिया में इस तरह की बात नयी नहीं है. पर अब जब बहस हो रही है , इस बहस में कई ऐसे लोग भी शामिल हो जायेंगे जो इन गतिविधियों में लिप्त रहे हों. मीडिया सेक्टर में वर्क प्लेस पर लड़कियों का शोषण भी ठीक वैसे ही होता है जैसे दूसरे सेक्टर में. काम दिलाने के नाम पर लड़कियों से कम्प्रोमाइज करने को कहा जाता है, थोडा घुली मिलीं तो खुलम खुला डिमांड कर दिया जाता है, और ऐसे में ये थोड़ी भी फ्लेक्सिबल हुई तो बॉस की मन मांगी मुराद पूरी हो जाती है. कम्प्रोमाइज करने वाले को उसका मनमाफिक सामान मिल जाता है तो बॉस भी लट्टू होकर आगे पीछे घूमता फिरता है. पर उनका क्या जो इस गंदगी से दूर रहती हैं. बॉस के डिमांड को पूरा नहीं करतीं. उनके लिए तो बस शिफ्ट करो. जलालत सहो, मेहनत करो और मानसिक प्रताड़ना सहो.
खैर, मीडिया में अब ये सब कुछ हो रहा है तो इसके पीछे कम समय में शोर्टकट के जरिये सब कुछ पा लेने की चाहत है, जिसके लिए कोई कुछ भी कर सकने को तैयार बैठा है. तो दूसरी तरफ बॉस की इच्छा भी पूरी हो जाती है.
कुल मिला कर कहे तो अब मीडिया के इन पाखंडियों को बेनकाब करने की जरुरत है. सवाल ये भी उठता है कि अब जब मीडिया के भीतर से ही वैसे लोगों के खिलाफ आवाज़ उठने लगी है जो कास्टिंग काउच जैसे घृणित कार्यों में लिप्त हैं तो भला कोई उनका नाम खुल कर क्यूँ नहीं बताता.

Saturday, March 13, 2010

अरे कोई चमचा समानता बिल भी पेश करो भाई


सार्वजनिक तौर आप किसी का चमचा कहलाना पसंद करते है क्या ? शायद नहीं ना. पर वक्त पडने पर किसी ना किसी की चमचई जरूर करते होगे. मै तो करता हूं. क्या आप नहीं करते क्या? पर भाई इस चमचई का सार्वजनिक प्रदर्शन अच्छा है क्या?. पर भईया अब चमचई की भी सीमा तय की जानी चाहिए. एलओसी टाइप यानी लाइन ऑफ कंट्रोल टाइप. भईया ये वहीं लाइन ऑफ कंट्रोल है जिसके लिए हर देश अपने पड़ोसी मुल्क के साथ भिड़ा रहता है.
खैर एलओसी वेलोसी की बात छोडिए, ज्यादा कम्यूनिकेटिव होते हुए या सरल भाषा में कहूं तो चमचई की सीमा तय की जानी चाहिए, जरूरत पड़े तो इसे कानूनी मान्यता देने के लिए महिला आरक्षण बिल की तरह संसद में चमचा समानता बिल भी पेश किया जाना चाहिए, पर भई इसके लिए नेताओं को थोड़ा निरपेक्ष्य होना होगा, आखिर वे भी किसी ना किसी की चमचई कर ही यहां पहुंचे हैं. अब इन नेताओं के पीछे भी चमचों की लंबी फौज है, जिसमें रिपोर्टर, कैमरामेन से लेकर स्ट्रिंगर, इलाके से छुटभैया से बाहुबली, किरानी से आईएएस आईपीएस तक सभी शामिल होते है जो अपनी अपनी हैसियत और नजदीकियों के हिसाब से चमचागिरी में शामिल होते है. पर अब वक्त आ गया है जब सभी चमचों को बराबरी का हक मिले. जिस तरह लोकतंत्र में जाति,धर्म, भाषा, क्षेत्र को लेकर किसी तरह के भेद को ख़त्म कर सभी को समान अधिकार दिया गया है, उसी तरह सभी चमचों को भी बगैर किसी भेद के बराबरी का दर्जा दिया जाए. चाहे वो बड़ा से बड़ा पत्रकार हो या कैमरामैन,बाहुबली हो या छुटभैया. और नेता इन सभी को बराबरी के स्तर पर चमचा ही माने कोई चमचा नंबर वन या दो नहीं.
पत्रकारिता में खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम कर रहे चमचों को शिकायत है कि चमचों की बूम पकड़ने वाली प्रजाति, कैमरा पकड़ने वाली प्रजाति पर ज्यादा हावी होने लगी है. पहली प्रजाति नेताओं को किनारे ले जाकर गुप चुप से सेटिंग गेटिंग कर लेती है और बेचारे कैमरा वाले चुपचाप सबकुछ देखते रहते है. चाहकर भी बेचारे कुछ कर नहीं पाते, मन मसोस कर रह जाते है कि उनके साथ के ही फलां ने चमचागिरी कर सफारी खरीद ली, फलां तो रोडछाप था पर अब सिंह साहब का आगे पीछे करते करते कितना आगे निकल गया और मैं वही सब करने के बावजूद हजार रूपये की नौकरी, वो भी कब चली जाए पता नहीं.
तो भईया सबका ख्याल करते हुए अब यही सही वक्त है जब सभी चमचों को बराबर का दर्जा दे दिया जाए ताकि किसी चमचे को अपने ही तरह के किसी चमचे से गिला शिकवा ना हो.
खैर, हम तो ठहरे पत्रकार. तो भैया कम से कम पत्रकारिता में चमचों के हित में आप भी अपनी आवाज बुलंद करे,जिससे इस प्रोफेशन में किसी को शिका यत ना हो और समानता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए कहें नो डिफरेंस बिटविन चमचा एंड चमचा का नारा बुलंद करें. क्यूंकि ना बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा है चमचैया ...

Thursday, September 24, 2009

ये दूरदर्शन भी बड़ा टोइंग है….

जर्नलिज्म की पढाई के दौरान पहले ही दिन से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्लास में लेक्चरर “भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और दूरदर्शन के इतिहास” के नोट्स देते नहीं थकते थे. और प्रायः यही जानकारी वे तब से देते आ रहे थे, जब से जर्नलिज्म की पढाई यूनिवर्सिटी में शुरू हुई थी. दूरदर्शन फलाने तारीख को शुरू हुआ....ग्रामीण विकास, शिक्षा और कृषि... वगैरह- वगैरह और न जाने क्या-क्या दूरदर्शन के खोले जाने के उद्देश्य थे. फिर बड़ी पीड़ा से कहते कि दूरदर्शन अपने उद्देश्य से भटक गया है.
पर मेरे लिए दूरदर्शन का यह इतिहास सिवाय बकथोथी के कुछ और नहीं लगता. 50 सालों के दूरदर्शन को मेरी उम्र के तक़रीबन 25 सालों ने नजदीक से देखा है. और मैंने अपने हिसाब से दूरदर्शन और टीवी की जो हिस्ट्री लिखी है, हो सकता है कि आप को बकथोथी लगे, पर पढ़िये जरुर.
हम लोगों की यादें धुंधली पर चुकी हैं. पर इतना याद है, शाम होते ही मोहल्ले के एकलौते घर में जहाँ टीवी था, भीड़ लग जाती. ब्लैक एंड व्हाइट 14 इंच की टीवी के सामने ज़मीन पर बैठ कर लोग “हमलोग” देखते. सालों बाद जब इसका रिपीट टेलीकास्ट देखा, तब पाया कि नन्हे, लल्लू और बसेसर राम की कहानी देखने वालो में कई पात्र तो तब टीवी के सामने और आसपास ही थे. रामायण-महाभारत के दौरान घर में टीवी नहीं था. प्रोग्राम शुरू होने के पहले ही पहुंच जाते चौधरी चाचा के घर. पहले खिड़की पर लटकते और देर तक चिरौरी करने के बाद जा कर कहीं टीवी के सामने जगह मिलती. तब टीवी के सामने बैठना ही मानो हम बच्चों के लिए महाभारत जीत लेने जैसा था.
नज़ारा तब भी वही होता.... एक टीवी और सामने मोहल्ले की भीड़. रामायण-महाभारत ने अरुण गोविल, दीपिका और नीतीश भारद्वाज जैसे कलाकारों को आम जनमानस की नज़रों में भगवान बना दिया. ये वही वक़्त था, जब मोगली के टाईटल सॉंग “जंगल-जंगल फूल खिला है..पता चला है.....” इतना पसंद आया कि अब ये मोबइल के रिंगटोंस में शामिल है.
दिन बीतते गए टीवी हमारे यहाँ भी आया, खास दिन चुनकर कि “जय संतोषी माँ” फिल्म दिखाई जायेगी. दिनभर हम भाई बहन स्कूल नहीं गए. एक-एक चीज देखते, एंटीना कैसे लग रहा है, तार ठीक है कि नहीं... फलाना के यहाँ तो ऐसा नहीं है....वैसा नहीं है...टीवी झिलमिलाता तब भी सामने बैठे रहे.
देर शाम आस पड़ोस को टीवी देखने का न्योता भी दे आया. तब पहली बार घर में अंग्रेजी और हिंदी के समाचार देखने में भी खूब मज़ा आया. समझ में आये या न आये. पडोसी भी संतोषी माँ की फिल्म देखने आने लगे. पर अचानक बत्ती गुल हो गई. लोग इंतजार करते रहे, बिजली नहीं आई, तो उंघते अनमनाते बेमन से घर गए. उस दिन से हर सुबह की शुरुआत टीवी के झिलमिलाने और फिर बन्दे मातरम से होती थी. कभी राष्ट्रीय शोक होता तो अफ़सोस, सप्ताह में दिखाई जाने वाली तीन फिल्मो का होता. गोलमाल, डिस्कोडांसर जैसी फिल्मे जब मंगलवार दोपहर प्रसारित हुई तब याद है, स्कूल में जहां करीब 1000 स्टूडेंट्स थे लंच के बाद 50-100 ही बचे थे. पर धीरे-धीरे टीवी का साइज़ बढा और सामने बैठने वालों की संख्या कम होती गयी.
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते
चित्रहार जैसे प्रोग्रामों से दूरदर्शन रंगीन हो गया था. याद है और दिनों की अपेक्षा बुधवार को मेरे कई हमउम्र पढाई छोड़ नए-नए गाने देखने के लिए शाम खाने का टाइम 7:30 कर चुके थे. तब ऑप्शन नहीं थे. लोग ऐड भी देखते. इसी बीच कभी “प्यार हुआ इकरार हुआ....” वाला ऐड आता तो प्रायः हर घरों में टीवी के सामने बैठे परिवार वाले एक दूसरे से झेप जाते. घरों में बैठे बाबूजी बेटियों से पानी मांगने लगते तो बेचारे बेटे नए लगे बीएसएनएल फोन का बिल जमा नहीं करने की वज़ह से झाड़ खाते.
पर काफी तेजी से टीवी की दुनिया में सब कुछ बदल गया है. एमटीवी और वीटीवी के ज़माने में तेज़ रैंप और ढेंन टे ढेंन.... म्यूजिक के बीच आई-पिल, अनवांटेड-72, मैनफोर्स और ये तो बड़ा टोइंग है.... जैसे विज्ञापन इजिली एक्सेप्टेबल हो गए हैं. “हमलोग” के नन्हे, लल्लू, बसेसर अब भी आस पडोस में नज़र आते हैं. पर आज के टीवी की आदर्श बहू अचानक किसी रियलिटी शो में बिकनी पहन कर अपनी छवि बदलने में लगी है. बैडरूम का सच, “सच का सामना” बन कर सब लोगों तक पहुँच रहा है. सीता के बाद “राखी का स्वयम्वर” टीवी पर पूरी टीआरपी बटोर जाता है. दफ्तर का टेंशन कई बार फैशन टीवी दूर कर देता है... अब तो सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने भी टीवी की रात रंगीन बनाने का मन बना लिया है. कहें तो टीवी का इतना ग्लैमरस हो जाना अच्छा लगता है.... पर पूरे परिवार के सामने नहीं. सिर्फ अपने बैडरूम में....पर इन सब के बीच अब दूरदर्शन, दूर का दर्शन हो चूका है. जिसे शायद कम ही लोग देखना पसंद करते हैं.
ऐसे में दूरदर्शन के पचास सालों को डिफाइन करें तो कहा जा सकता है कि ये सफ़र मोहल्ले भर की भीड़ के सामने 14 इंच की ब्लैक एंड व्हाइट टीवी से लेकर आज के एलसीडी और एचडी टीवी के बैडरूम टीवी बनने की इतनी की कहानी है.
अगर आपको ये कहानी बकथोथी लगी तो बताइयेगा जरुर.

Thursday, June 18, 2009

वामपंथ सफर नक्सलवाडी से सिंगुर और लालगढ़ तक...

१५ वे लोकसभा चुनाव के पहले वामपंथियों को यह एहसास था की वे देश की तीसरी सबसे बड़ी ताकत हैं । लेकिन उनका यह भ्रम लगता है जनता के दिए फैसले के बाद भी नहीं टुटा । चार दशकों से उनके लिए अभेद्य किला रहे बंगाल में जबरदस्त सेंधमारी हो गई , वैचारिक बदलाव ने वामपंथ को जड़ से हिला दिया है । कभी वैचारिक तौर पर उनके साथ रहे माओवादी अब सीपीएम् के लोगो को ही बन्दूक की गोली के सामने रख सत्ता पा लेना चाहते हैं। उदाहरण सामने है - लालगढ़ में नक्सलियों ने ना सिर्फ़ कब्ज़ा कर वर्षो से चली आ रही सीपीएम् सरकार को चुनौती दी बल्कि आज वहां सीपीएम् के नेता -कार्यकर्ता उनके निशाने पर हैं । जाहिर तौर पर इसके लिए बंगाल की सीपीएम् सरकार ही दोषी है , कभी सामंत वाद के विरोध और किसानो के आन्दोलन का समर्थन , और भूमिहीनों को जमीन दिलाकर सीपीएम् ने अपनी ज़मीनमज़बूत की तो बाद में सिंगुर और नंदीग्राम में उन्ही किसानो को जमीन से बेदखल किया जाने की कोशिश सीपीएम् के जमींदोज़होने की वज़ह बन गए। तक़रीबन चार दशकों के राज ने सीपीएम् कार्यकर्ताओं और नेताओ को ही सामंती बना दिया जिस सामंतवाद के बिरोध ने उन्हें नई जान दी थी, उसी राह पर सीपीएम् भी चल पड़ी ।
नक्सल आन्दोलन की शुरुआत नक्सलवाडी से सामंतवादी और जमींदारो की नीतियों से शिकार रहे लोगो ने की , हिंसात्मक आन्दोलन के तौर पर शुरू हुए इस आन्दोलन की मांगो को एक तरह से बंगाल की सीपीएम् सरकार ने ही पुरा किया । सामंती व्यवस्था का अंत हुआ बंगाल में भूमि कानून बना कर भूमिहीनों को जमीन दी गई , वर्षों से जमींदारों की खेतों पर खेती करते आ रहे किसानो को जमीन का मालिकाना हक मिला। किसानो-मजदूरों का साथ मिला ,तब सीपीएम् के किसान समर्थित फैसलों ने बंगाल में उसकी जड़ को इतना मजबूत कर दिया की कोई दूसरी पोलिटिकल शक्ति सीपीएम् के सामने पनप नही पाई। कहीं ना कहीं इस दौरान नक्सलियों का समर्थन भी सीपीएम् के ही साथ रहा ।
पर कहते है की सत्ता भ्रष्ट बनती है तो वामपंथी इससे भला कैसे बचे रहते ? वर्षों से किसानो- मजदूरों हक की बात करने वाली सरकार ने उन्ही किसानो से जमीन छिनने की रणनीति बनाई। पूंजीवाद के विरोध के नारे के उलट किसानो की शर्त पर बुद्धदेव जैसे बुजुर्ग वामपंथी पूंजीवाद के समर्थन में आ खड़े हुए , किसानो से खेती योग्य जमीन छीन कर सिंगुर में टाटा के सपने सजाने की योजना बनने लगी , नंदीग्राम में आम किसान सीपीएम् के निशानेपर रहे सीपीएम् के कार्यकर्ता घरों में घुस कर महिलाओं से बलात्कार करने लगे, किसानो की हत्याएं की जाने लगी , वो सब कुछ हुआ जो अख्खड़ जमींदारो सामंतियों ने भी नही किया होगा। पर बुद्धदेव भट्टाचार्य की वामपंथी सरकार मौन रही । सीपीएम् की ताकत रहे किसान मजदूर उससे दूर हो चुके थे। इसी का परिणाम था की जनता ने इस बार लोकसभा चुनावो में वामपंथियों को ना सिर्फ़ नकार दिया बल्कि यह भी संकेत से डाले की बंगाल का यह किला 20११ के विधानसभा चुनावो में जमींदोज ना हो जाए।

अब जब लालगढ़ में सीपीएम् के लोग ही निशाने पर हैं तो इतना तो कहा ही जा सकता है की नक्सलवाडी से सिंगुर और अब लालगढ़ के वामपंथी सफर में वामपंथ मृतप्राय हो चुका है , और इस दौरान किसानो -मजदूरों के मुद्दों पर राजनीती करने वाला वामपंथ अतिपूंजीवादी नीतियों को अपना चूका है ।

Wednesday, May 20, 2009

देखो...की जनता जाग गई ..लोकतंत्र का नया सबेरा

बिहार में लालू-पासवान की जोड़ी हासिये पर चली गई। चुनावो के पहले ख़ुद के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने वाले लालू प्रसाद का मुस्लिम-यादव समीकरण ध्वस्त हो गया तो दलित प्रधानमंत्री के तौर पर ख़ुद को प्रेजेंट करने वाले रामविलास पासवान अपने पारंपरिक सीट हाजीपुर से हार गए। कभी रिकॉर्ड मतों से वहां से जीतानेवाली जनता ने उन्हें इस बार नकार दिया, इस बार कम से कम बिहार ने यह साफ़ करदिया की वह सिर्फ़ जाति-धर्म के नाम पर अपने नुमाइंदे नही चुनेगी।बिहार में पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी दलित-मुस्लिम और लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल मुस्लिम-यादव समीकरणों की बदौलत जीतते रहे हैं । एक दुसरे के खिलाफ रहने वाले ये दोनों समाजवादी नेता जब एक मंच पर आए तो इनकी एकजुटता से बिहार में अच्छी सीटें आने की कम से कम इन्हे उम्मीद जरुर रही होगी, पर जनता ने यहाँ पिछले तीन-चार सालो में हुए विकास को तबज्जो दी,नीतिश कुमार के विकास कार्यों की बदौलत ही जनता ने यहाँ जद(यू) को वोट दिया और यहाँ एक तरह से एनडीऐ के हांथो दोनों समाजवादी नेता अपनी पुरानी जमीन गवां बैठे।


दूसरी तरफ़ देश भर में धार्मिक लामबंदी की बीजेपी की कोशिश कामयाब नही हो सकी। साल 1991 के बाद ये पहली बार है जब पार्टी को इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा ,वो भी तब जब पार्टी के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवानी ख़ुद पी ऍम बनने की होड़ में थे। बरुण गाँधी के बयानों से पार्टी को नुकसान हुआ ये बीजेपी के लोग भी स्वीकारते हैं , चुनावो में बीजेपी के सुपरस्टार प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी गुजरात में कोई खास कमाल करने में तो नाकाम रहे ही, दुसरे राज्यों में जहाँ कहीं भी उन्होंने प्रचार किया अधिकांश सीटो पर बीजेपी का कमल मुरझा गया। एक समय बीजेपी के गढ़ रहे राजस्थान, उतरांचल ,दिल्ली ,हरियाणा जैसे जगहों पर पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ । उडीसा के कंधमाल में जहाँ हिंदुत्व के नाम पर बजरंग दल और आर एस एस के कार्यकर्ता हिंसा फैलाते रहे , जहाँ बीजेपी ने धार्मिक दीवारें खींचने की तमाम कोशिशें कर रखी थी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा, बीजेपी के प्रत्याशी वहां तीसरे नम्बर पर खिसक गए,तो उडीसा में पार्टी का सुपडा ही साफ़ हो गया ।


चुनाव के ठीक पहले सिक्ख दंगो पर शुरू हुई राजनीति से भी बीजेपी शिरोमणि अकाली दल को उम्मीद थी पर यहाँ भी पंजाब सरकार की फेलियोर की वज़ह से सिक्खों ने कांग्रेस को ही वोट किया तो दिल्ली में भी जहाँ इन मुद्दों पर जगदीश टाईटलर - सज्जन कुमार के टिकट कटे वहां ना सिर्फ़ कांग्रेस जीती,बल्कि बीजेपी की दुर्गति हो गई ।


उतरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को भी उम्मीदों के मुताबिक जनसमर्थन नही मिली , भारतीय ओबामा बनने की मायावती की ख्वाहिश जनता के फैसले के बाद माया बन कर कम से कम पॉँच सालो के लिए टल गई। दलित के बेटी के प्रधानमंत्री बनने के सपनो को दलितों ने ही तोड़ दिया और कलावातिया के दर्द को संसद में उठाने वाले राहुल गाँधी पर उनका जमा विश्वास कमाल कर गया । दम तोड़ चुकी कांग्रेस को राहुल की विकासवादी छवि ने यहाँ नया आयाम दिया साथ ही विपक्षियों के जातिधर्म के नाम पर वोट पाने की उम्मीद और बीजेपी के धार्मिक कट्टरता का फायदा भी कांग्रेस को मिला। मुस्लिमो के भरोसे अपनी जमीन बचाने की सोच रही सपा को कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन चुके कल्याण सिंह को गले लगना भारी पड़ा। यूपी में सीटें लाकर बारगेनिंग पॉलिटिक्स करने की बीएसपी और सपा की मंशा को भी जनता ने नकार दिया।


उसी तरह साल भर से मराठा मानुष की बात कर क्षेत्रीयता के नाम पर महारास्त्र में हिंसा फैलाने वाले राज ठाकरे को मराठी जनता ने नकार दिया यही नही शिवसेना को भी धर्म -क्षेत्र की राजनीती की वज़ह से नुकसान उठाना पड़ा, मुंबई जैसे अपने किले में शिव सेना एक भी सीट नही जीत सकी। अलग तेलंगाना राज्य के डिमांड पर पहले यूपीए फिर चौथे मोर्चे और आख़िर में एनडीऐ के साथ आने वाले टीआरएस को भी मुह की खानी पड़ी। क्षेत्रीयता के नाम पर वोट जुगाड़ने और फिर बारगेनिंग कर सत्ता में आने वाली झारखण्ड मुक्ति मोर्चा अपने गढ़ झारखण्ड में बुरी तरह हार कर दो सीटों तक सिमट गई तो एनडीए से लेकर यूपीए तक के शासन काल में हमेशा मंत्री बने रहने वाले कद्दावर रामबिलास ख़ुद तो हारे ही पार्टी एक भी सीट नही जीत सकी। वामपंथ विचारधारा के नाम पर उदारवादी और विकासपरक नीतियों के विरोध करने वाले वामपंथियों की ये सबसे बुरी हार है, इस बार बंगाल के अभेध्य किले में जबरदस्त सेंधमारी हो गई।


कुल मिला कर कहे तो इस बार के चुनावो में मेचयोरनेस देखा गया, जाति-धर्म के नाम पर बरगलाने वालो की हार हुई तो जनता ने उन सब को सबक सिखाया जिनके लिए राजनीति सेवा कार्य ना होकर सिर्फ़ राज करने की नीति बन कर रह गई थी।

Friday, May 8, 2009

लालूजी मीडिया से काहे का गुस्सा...


लालू जी कल वोट करने वेटेनरी कालेज पहुंचे तो उनके व्यव्हार में भी जानवरीपन सा नज़र आया। बौखलाहट , गुस्सा और कांग्रेस के ठेंगा दिखा दिए जाने की परेशानी के बीच हार जाने के खौफ से तमतमाए लालूजी मीडिया के फोटोग्राफरों / कैमेरामेनो को धक्का देने, भगाने लगे। मीडिया कर्मियों से बात तक नही की, आख़िर क्या बात है की मीडिया फ्रेंडली कहें जाने वाले लालू जी ने वोटिंग के दौरान ऐसा रूख दिखाया। फ़िर कहलवा दिया चुनाव के बाद मीडिया से बात करूँगा।
दरअसल बिहार के पत्रकारों ने १५ सालो तक वहां जंगल राज देखा है, रोजाना पटना के किसी ना किसी इलाके में किसी डॉक्टर, बिजनेसमेन, प्रोफेसर के अपहरण , मर्डर की खबरें आती थी। अपराध में बिहार कुख्यात हो चुका था। उस दौर में बिहार में पत्रकारिता करने वालो ने यहाँ जब नीतिश कुमार के सरकार को कुछ काम करता पाया तो उन्हें सुशासन बाबु का दर्जा दे दिया गया। नीतिश लोगो के साथ-साथ मीडिया की नज़रों में भी हीरो बनकर उभरे। पर बजाए इसके वे कभी कभार मीडिया के निशाने पर आए, ख़ास कर बिहार में आई बाढ़ के दौरान।
पर लालू जी तो बातों के बादशाह ठहरे कुछ भी कह दिया तो ख़बरों में आना ही है , मीडिया उनके पीछे भी लगी रहती है । पर इस बार उनका गुस्सा फ़ुट पड़ा इसकी वज़ह कई है , एक तो वो मीडिया द्वारा बनाई गई नीतिश कुमार की सुशासन बाबु की छवि , तो दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी द्वारा नीतिश कुमार के अच्छा काम करने के बयान पर लालू जी को लगी चिढ। ऊपर से कांग्रेस का लालू जी पर तीखा वार । इन सब के साथ छपरा में राजीव प्रताप की चुनौती, ख़ुद के साथ पार्टी के हार का डर, प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिशों पर पानी फिरता हुआ देखना, साले साधू यादव की बगावत , इन सब के बीच मन का गुस्सा तो था ही पर बार-बार पत्रकार सवाल करे तो इसका गुस्सा पत्रकारों पर उत्तारने से बेहतर क्या हो सकता है।
खैर लालू जी के लिए इतना तो कहा ही जा सकता है कि सत्ता में रहते हुए अगर वे बजाए जातिगत समीकरण बनाने के, विकास का काम करते तो देश के सबसे बड़े समाजवादी नेता तो होते ही बिहार सबसे संपन राज्य होता । और अब जनता जिस तरह ठेंगे दिखा रही है सर आंखों पर बैठती।
लालू जी अब ख़ुद के गिरेबान में झांकिए और मीडिया पर गुस्सा निकालना बंद कीजिये।
Related Posts with Thumbnails