Wednesday, May 5, 2010

.... तो ये प्रियभांशुओं के पीछे बंदूक लेकर दौड़े

आरा के एक गाँव की बात है । तक़रीबन १०-१२ साल पहले की। राजपूत परिवार की एक बेटी जो आरा में रह कर पढाई करती थी उसने अपने एक साथी के साथ भाग कर शादी कर ली... घर वाले को गाँव के लोग ताना मारते- आउर भेज पढाई करे खातिर, दोष लईकी से जयादा घर वाला के बा....अइसन लईकी के काट के सोन ( सोन नदी) में फेंक देवे के चाही...बगैरह बगैरह .....


खैर, ये बात तो आरा के एक ऐसे गाँव की थी जहां लोग कम पढ़े लिखे थे, प्यार जैसी बातों का इनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ने वाला था, उसकी वज़ह थी वे जिन संस्कारों में पले-बढे थे वहां पारिवारिक प्रतिष्ठा, प्यार जैसी आत्मीय चीज से ज्यादा तबज्जो रखती है। और ऐसे ही गावों में चाहे वो झारखण्ड -बिहार , यूपी के हो या हरियाणा, पंजाब के ऑनर किलिंग आम बात है। पर अब मामला एक ऐसे परिवार का है जो सभ्य कहा जाता है। ये परिवार अपनी एकलौती बेटी को जर्नलिज्म की पढाई करने के लिए दिल्ली भेजता है, लड़की दुसरे कास्ट के लड़के से प्यार कर बैठती है। पढाई के बाद दिल्ली के एक प्रख्यात अखबार में काम भी करती है। पर जब यही लड़की अपने साथी से शादी करना चाहती है तो परिवार वाले नाराज हो जाते है, संदिग्ध परिस्थियों में उसकी लाश घर से बरामद की जाती है, तफ्तीश में पहले आत्महत्या और फिर हत्या का मामला सामने आता है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलता है की लड़की10-12 हफ्ते से प्रेग्नेंट भी थी... पर प्रेमी कहता है उसे अपनी प्रेमिका के प्रेग्नेंट होने का पता ही नहीं।


ऐसी ही अनसुलझी गुत्थी बन गयी है निरुपमा। पत्रकार निरुपमा... आरोप है घर वालों ने कोरी प्रतिष्ठा के लिए मार दिया... तो प्रेमी ने भी प्रेम की सौगात दी बिन व्याही मा बना कर। अब लड़ाई लड़ी जा रही है, निरुपमा को इन्साफ देने की। तमाम टीवी चैनलों से लेकर कई वेबसाइट्स पर बुद्धिजीवियों के बीच बहस चल रही है। कोई घरवालों को जल्लाद कह रहा है तो कोई निरुपमा को इन्साफ दिलाने की बात कर रहा है ,प्रेमी महोदय भी चौड़ी छाती कर टीवी चैनलों में बाईट देते फिर रहे है, निरुपमा के लिए इन्साफ मांग रहे है, पर सवाल उठता है क्या उन्होंने खुद निरुपमा से, जिससे वो प्यार करते थे इन्साफ किया। क्या प्यार करने का ये मतलब है की जिससे प्यार करो उससे बिन व्याही मा बना दो...

बुद्धिजीवियों का एक तबका बड़े कि जोर शोर के साथ प्रेमी प्रियाभान्शु महोदय के साथ खड़ा है, और सिर्फ घर वालों को गरियाकर अपनी भड़ास निकाल रहा है। पर ये बुद्धिजीवी ये क्यूँ भूल जाते हैं जब ऐसा ही कोई प्रियाभान्शु इनकी भी बहन, बेटियों को बिना व्याहे प्रेग्नेंट कर दे तो क्या वे उसे भी ऐसे ही सिरमौर बनायेंगे, हाँ, तब जरुर ये बन्दुक लेकर ऐसे प्रियाभान्शुओं को मारने के लिए दौड़े ।

प्रेमी महोदय निरुपमा से कितना प्यार करते थे इसका अंदाज़ा भी इस बात से लगाया जा सकता है, जब इनकी मृत प्रेमिका के मामले में पूछताछ के लिए पुलिस ने कोडरमा बुलाया तो जनाब सीधे मुकर गए। हाँ, रोज रोज टीवी पर आकर ये खुद को बड़ा प्रेमी जरुर साबित करना चाहते हैं। पर जब निरुपमा को इन्साफ ये दिलाना ही चाहते है तो ये पुलिस को सहयोग क्यूँ नहीं करते ....
मतलब साफ़ है निरुपमा की मौत का गुनाहगार जितना उसके घर वाले है , उतना ही जनाब -प्रियभान्शु भी, जिसने निरुपमा के सामने ऐसी परिस्तिथियाँ खड़ी कि जिसकी वज़ह से उसकी मौत हुई ...बुद्धिजीवियों से अनुरोध है, उस परिवार का भी दर्द समझे जिससे निरुपमा ताल्लुकात रखती थी। ज़नाब आप लोगों कि भी बेटियां है, बहने हैं .....समझने की कोशिश करें संस्कार और संस्कृतियों को ठेंगा दिखा कर आप प्रगतिशील नहीं कहलायेंगे ।


Wednesday, April 21, 2010

मीडिया के आहूजा और नित्यानंद-भीमानंद

शाइनी आहूजा, स्वामी नित्यानंद और भीमानंद कुछ ऐसे नाम है जिनकी सच्चाई सामने नहीं आती तो आज भी ये काले कारनामे करने के बावजूद शान की जिन्दगी जी रहे होते. शाइनी के फैन्स रंगीन दुनिया के इस हीरो को वैसा ही भोला भाला मानती जैसे की वो अपनी फिल्मो में एक्टिंग करता, फिल्मो के अनुसार उसकी छवि कभी गंभीर बनती तो कभी चॉकलेटी जैसे की उसकी सूरत थी. पर वास्तविक जीवन में शाइनी की सीरत सबके सामने है. बाबा जिसके भक्तों में बड़े से बड़ा नेता, मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की गिनती होती हो वो सेक्स स्कैंडल में पकड़ा जाए, धर्म के क्षेत्र में जिसकी तुलना शंकराचार्य से की जाने लगी हो उसकी आपतिजनक वीडियो टीवी पर प्रसारित हो जाती है., और उनके काले कारनामे की पोल खुल जाती है. टीवी पर बहस छिड़ जाती है, नैतिकता की दुहाई दी जाती है. पर क्या नैतिकता की बात करने वालों के बीच भी ऐसे लोग है जो अपने कारनामो से इन आहूजाओं, नित्यानंद और भीमानंद से किसी मायने में कम नहीं. सवाल अब मीडिया के बीच से ही उठने लगे है की क्या बॉलीवुड के दायरे से बाहर निकल कर कास्टिंग काउच, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में भी घर कर गया है.
जाने माने पत्रकार अजित अंजुम ने अपनी फेसबुक पर ये लिखा की कैसे उनसे कुछ लड़कियों ने अपनी व्यथा सुनाई की मास कॉम की पढाई करने के बाद जब नौकरी की तलाश में वे मीडिया के वरिष्ठों से मिली तो उनका व्यवहार कैसा रहा. कई लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आयीं जिन्होंने मीडिया में हो रहे कास्टिंग काउच पर खुल कर अपनी बात रखी. कईयों ने इशारों इशारों में उन लोगों की तरफ इशारा भी किया जो मीडिया में नारी शरीर के कुछ ज्यादा ही शौक़ीन हैं.
दरअसल मीडिया में इस तरह की बात नयी नहीं है. पर अब जब बहस हो रही है , इस बहस में कई ऐसे लोग भी शामिल हो जायेंगे जो इन गतिविधियों में लिप्त रहे हों. मीडिया सेक्टर में वर्क प्लेस पर लड़कियों का शोषण भी ठीक वैसे ही होता है जैसे दूसरे सेक्टर में. काम दिलाने के नाम पर लड़कियों से कम्प्रोमाइज करने को कहा जाता है, थोडा घुली मिलीं तो खुलम खुला डिमांड कर दिया जाता है, और ऐसे में ये थोड़ी भी फ्लेक्सिबल हुई तो बॉस की मन मांगी मुराद पूरी हो जाती है. कम्प्रोमाइज करने वाले को उसका मनमाफिक सामान मिल जाता है तो बॉस भी लट्टू होकर आगे पीछे घूमता फिरता है. पर उनका क्या जो इस गंदगी से दूर रहती हैं. बॉस के डिमांड को पूरा नहीं करतीं. उनके लिए तो बस शिफ्ट करो. जलालत सहो, मेहनत करो और मानसिक प्रताड़ना सहो.
खैर, मीडिया में अब ये सब कुछ हो रहा है तो इसके पीछे कम समय में शोर्टकट के जरिये सब कुछ पा लेने की चाहत है, जिसके लिए कोई कुछ भी कर सकने को तैयार बैठा है. तो दूसरी तरफ बॉस की इच्छा भी पूरी हो जाती है.
कुल मिला कर कहे तो अब मीडिया के इन पाखंडियों को बेनकाब करने की जरुरत है. सवाल ये भी उठता है कि अब जब मीडिया के भीतर से ही वैसे लोगों के खिलाफ आवाज़ उठने लगी है जो कास्टिंग काउच जैसे घृणित कार्यों में लिप्त हैं तो भला कोई उनका नाम खुल कर क्यूँ नहीं बताता.

Saturday, March 13, 2010

अरे कोई चमचा समानता बिल भी पेश करो भाई


सार्वजनिक तौर आप किसी का चमचा कहलाना पसंद करते है क्या ? शायद नहीं ना. पर वक्त पडने पर किसी ना किसी की चमचई जरूर करते होगे. मै तो करता हूं. क्या आप नहीं करते क्या? पर भाई इस चमचई का सार्वजनिक प्रदर्शन अच्छा है क्या?. पर भईया अब चमचई की भी सीमा तय की जानी चाहिए. एलओसी टाइप यानी लाइन ऑफ कंट्रोल टाइप. भईया ये वहीं लाइन ऑफ कंट्रोल है जिसके लिए हर देश अपने पड़ोसी मुल्क के साथ भिड़ा रहता है.
खैर एलओसी वेलोसी की बात छोडिए, ज्यादा कम्यूनिकेटिव होते हुए या सरल भाषा में कहूं तो चमचई की सीमा तय की जानी चाहिए, जरूरत पड़े तो इसे कानूनी मान्यता देने के लिए महिला आरक्षण बिल की तरह संसद में चमचा समानता बिल भी पेश किया जाना चाहिए, पर भई इसके लिए नेताओं को थोड़ा निरपेक्ष्य होना होगा, आखिर वे भी किसी ना किसी की चमचई कर ही यहां पहुंचे हैं. अब इन नेताओं के पीछे भी चमचों की लंबी फौज है, जिसमें रिपोर्टर, कैमरामेन से लेकर स्ट्रिंगर, इलाके से छुटभैया से बाहुबली, किरानी से आईएएस आईपीएस तक सभी शामिल होते है जो अपनी अपनी हैसियत और नजदीकियों के हिसाब से चमचागिरी में शामिल होते है. पर अब वक्त आ गया है जब सभी चमचों को बराबरी का हक मिले. जिस तरह लोकतंत्र में जाति,धर्म, भाषा, क्षेत्र को लेकर किसी तरह के भेद को ख़त्म कर सभी को समान अधिकार दिया गया है, उसी तरह सभी चमचों को भी बगैर किसी भेद के बराबरी का दर्जा दिया जाए. चाहे वो बड़ा से बड़ा पत्रकार हो या कैमरामैन,बाहुबली हो या छुटभैया. और नेता इन सभी को बराबरी के स्तर पर चमचा ही माने कोई चमचा नंबर वन या दो नहीं.
पत्रकारिता में खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम कर रहे चमचों को शिकायत है कि चमचों की बूम पकड़ने वाली प्रजाति, कैमरा पकड़ने वाली प्रजाति पर ज्यादा हावी होने लगी है. पहली प्रजाति नेताओं को किनारे ले जाकर गुप चुप से सेटिंग गेटिंग कर लेती है और बेचारे कैमरा वाले चुपचाप सबकुछ देखते रहते है. चाहकर भी बेचारे कुछ कर नहीं पाते, मन मसोस कर रह जाते है कि उनके साथ के ही फलां ने चमचागिरी कर सफारी खरीद ली, फलां तो रोडछाप था पर अब सिंह साहब का आगे पीछे करते करते कितना आगे निकल गया और मैं वही सब करने के बावजूद हजार रूपये की नौकरी, वो भी कब चली जाए पता नहीं.
तो भईया सबका ख्याल करते हुए अब यही सही वक्त है जब सभी चमचों को बराबर का दर्जा दे दिया जाए ताकि किसी चमचे को अपने ही तरह के किसी चमचे से गिला शिकवा ना हो.
खैर, हम तो ठहरे पत्रकार. तो भैया कम से कम पत्रकारिता में चमचों के हित में आप भी अपनी आवाज बुलंद करे,जिससे इस प्रोफेशन में किसी को शिका यत ना हो और समानता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए कहें नो डिफरेंस बिटविन चमचा एंड चमचा का नारा बुलंद करें. क्यूंकि ना बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा है चमचैया ...
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