बिहार में लालू-पासवान की जोड़ी हासिये पर चली गई। चुनावो के पहले ख़ुद के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने वाले लालू प्रसाद का मुस्लिम-यादव समीकरण ध्वस्त हो गया तो दलित प्रधानमंत्री के तौर पर ख़ुद को प्रेजेंट करने वाले रामविलास पासवान अपने पारंपरिक सीट हाजीपुर से हार गए। कभी रिकॉर्ड मतों से वहां से जीतानेवाली जनता ने उन्हें इस बार नकार दिया, इस बार कम से कम बिहार ने यह साफ़ करदिया की वह सिर्फ़ जाति-धर्म के नाम पर अपने नुमाइंदे नही चुनेगी।बिहार में पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी दलित-मुस्लिम और लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल मुस्लिम-यादव समीकरणों की बदौलत जीतते रहे हैं । एक दुसरे के खिलाफ रहने वाले ये दोनों समाजवादी नेता जब एक मंच पर आए तो इनकी एकजुटता से बिहार में अच्छी सीटें आने की कम से कम इन्हे उम्मीद जरुर रही होगी, पर जनता ने यहाँ पिछले तीन-चार सालो में हुए विकास को तबज्जो दी,नीतिश कुमार के विकास कार्यों की बदौलत ही जनता ने यहाँ जद(यू) को वोट दिया और यहाँ एक तरह से एनडीऐ के हांथो दोनों समाजवादी नेता अपनी पुरानी जमीन गवां बैठे।
दूसरी तरफ़ देश भर में धार्मिक लामबंदी की बीजेपी की कोशिश कामयाब नही हो सकी। साल 1991 के बाद ये पहली बार है जब पार्टी को इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा ,वो भी तब जब पार्टी के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवानी ख़ुद पी ऍम बनने की होड़ में थे। बरुण गाँधी के बयानों से पार्टी को नुकसान हुआ ये बीजेपी के लोग भी स्वीकारते हैं , चुनावो में बीजेपी के सुपरस्टार प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी गुजरात में कोई खास कमाल करने में तो नाकाम रहे ही, दुसरे राज्यों में जहाँ कहीं भी उन्होंने प्रचार किया अधिकांश सीटो पर बीजेपी का कमल मुरझा गया। एक समय बीजेपी के गढ़ रहे राजस्थान, उतरांचल ,दिल्ली ,हरियाणा जैसे जगहों पर पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ । उडीसा के कंधमाल में जहाँ हिंदुत्व के नाम पर बजरंग दल और आर एस एस के कार्यकर्ता हिंसा फैलाते रहे , जहाँ बीजेपी ने धार्मिक दीवारें खींचने की तमाम कोशिशें कर रखी थी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा, बीजेपी के प्रत्याशी वहां तीसरे नम्बर पर खिसक गए,तो उडीसा में पार्टी का सुपडा ही साफ़ हो गया ।
चुनाव के ठीक पहले सिक्ख दंगो पर शुरू हुई राजनीति से भी बीजेपी शिरोमणि अकाली दल को उम्मीद थी पर यहाँ भी पंजाब सरकार की फेलियोर की वज़ह से सिक्खों ने कांग्रेस को ही वोट किया तो दिल्ली में भी जहाँ इन मुद्दों पर जगदीश टाईटलर - सज्जन कुमार के टिकट कटे वहां ना सिर्फ़ कांग्रेस जीती,बल्कि बीजेपी की दुर्गति हो गई ।
उतरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को भी उम्मीदों के मुताबिक जनसमर्थन नही मिली , भारतीय ओबामा बनने की मायावती की ख्वाहिश जनता के फैसले के बाद माया बन कर कम से कम पॉँच सालो के लिए टल गई। दलित के बेटी के प्रधानमंत्री बनने के सपनो को दलितों ने ही तोड़ दिया और कलावातिया के दर्द को संसद में उठाने वाले राहुल गाँधी पर उनका जमा विश्वास कमाल कर गया । दम तोड़ चुकी कांग्रेस को राहुल की विकासवादी छवि ने यहाँ नया आयाम दिया साथ ही विपक्षियों के जातिधर्म के नाम पर वोट पाने की उम्मीद और बीजेपी के धार्मिक कट्टरता का फायदा भी कांग्रेस को मिला। मुस्लिमो के भरोसे अपनी जमीन बचाने की सोच रही सपा को कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन चुके कल्याण सिंह को गले लगना भारी पड़ा। यूपी में सीटें लाकर बारगेनिंग पॉलिटिक्स करने की बीएसपी और सपा की मंशा को भी जनता ने नकार दिया।
उसी तरह साल भर से मराठा मानुष की बात कर क्षेत्रीयता के नाम पर महारास्त्र में हिंसा फैलाने वाले राज ठाकरे को मराठी जनता ने नकार दिया यही नही शिवसेना को भी धर्म -क्षेत्र की राजनीती की वज़ह से नुकसान उठाना पड़ा, मुंबई जैसे अपने किले में शिव सेना एक भी सीट नही जीत सकी। अलग तेलंगाना राज्य के डिमांड पर पहले यूपीए फिर चौथे मोर्चे और आख़िर में एनडीऐ के साथ आने वाले टीआरएस को भी मुह की खानी पड़ी। क्षेत्रीयता के नाम पर वोट जुगाड़ने और फिर बारगेनिंग कर सत्ता में आने वाली झारखण्ड मुक्ति मोर्चा अपने गढ़ झारखण्ड में बुरी तरह हार कर दो सीटों तक सिमट गई तो एनडीए से लेकर यूपीए तक के शासन काल में हमेशा मंत्री बने रहने वाले कद्दावर रामबिलास ख़ुद तो हारे ही पार्टी एक भी सीट नही जीत सकी। वामपंथ विचारधारा के नाम पर उदारवादी और विकासपरक नीतियों के विरोध करने वाले वामपंथियों की ये सबसे बुरी हार है, इस बार बंगाल के अभेध्य किले में जबरदस्त सेंधमारी हो गई।
कुल मिला कर कहे तो इस बार के चुनावो में मेचयोरनेस देखा गया, जाति-धर्म के नाम पर बरगलाने वालो की हार हुई तो जनता ने उन सब को सबक सिखाया जिनके लिए राजनीति सेवा कार्य ना होकर सिर्फ़ राज करने की नीति बन कर रह गई थी।