शायद नही
- चुनाव के दिन लगभग आधे लोग वोटिंग नही करते ( ये जनता की गलती है), वोट के अपेक्षा पढ़े लिखे लोग घर में बैठ कर फ़िल्म देखना या होलीडे मानना ज्यादा पसंद करते है, हालाँकि बाद में यही बुद्धिजीवी तबका हर मुद्दे पर अपनी बात बेबाकी से करता है( घर के सोफे पे बैठकर) ।
- जाति-धर्म उम्मीदवारों को चुनने का अहम् पैमाना होता है। इसी भरोसे तरह -तरह के समीकरण बनते है कही कोई लालू माई (मुस्लिम - यादव) समीकरण बनता है तो कहीं शिबू जैसा नेता माँ ( मुस्लिम - आदिवासी) समीकरण बनने की जुगत में लगा रहता है।
- कुछ लोग पैसे लेकर वोटिंग करते है, बिना करोडो खर्च किए कोई चुनाव लड़ने की सोच भी नही सकता ( अब इतने रुपये कोई जनसेवा के लिए तो खर्च नही ही करेगा, हाँ करोडो लगाओ अरबों कमाओ का धंधा जरूर होता है )
- एक कहावत है: "जिस ओर युवा चलता है उस ओर ज़माना चलता " पर चुनाव के दिन कई युवा के कदम उधर ही बढ़ते है जिस ओर शराब और पैसे मिलते हैं ।
लोकतंत्र हमारा ( नेता का) , नेता के लिए जनता के नाम पर किया जाने वाला शासन है।